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समत्वयोग और अहिंसा से मुक्त होना होता है ।
समता के साधक के लिए जाति का कोई महत्त्व नहीं है। उसके लिए सब मानव समान हैं, मानव-मानव में कोई भेद नहीं है । संसार के सभी मनुष्यों की जाति एक है । उनकी गाय, घोड़े आदि के समान पृथक्-पृथक जातियाँ नहीं हैं ।
समता का साधक क्रोध, भय, हास्य, लोभ और मोह के वशीभूत होकर जो स्वद्रव्य - क्षेत्र -- काल - भाव से सत् है उसको असत् और परद्रव्य क्षेत्र - काल - भाव की अपेक्षा असत् है उसको सत् नहीं बताता । जो पदार्थ वास्तव में है उसे पर रूप नहीं कहता, जैसे घोड़े को गधा कहना । दूसरे की निन्दा नहीं करता । जिस उपदेश को सुनकर मनुष्य पाप रूप प्रवृत्ति करने लगे, ऐसा उपदेश नहीं देता । उसके वचन हमेशा हित, मित और प्रिय होते हैं । दूसरों के दोष बताने में उसकी वाणी सदैव मौनावलम्बिनी होती है ।
सच्चा श्रमण हठी, दुराग्रही तथा एकान्ती नहीं हो सकता, क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है । एक बार में शब्द पुद्गल होने से वस्तु के एक धर्म की मुख्यता को लेकर कथन किया जाता है; शेष धर्म गौण रहते हैं । इसी लिए उसकी वाणी, याने उसका उपदेश सापेक्ष होता है। वह 'ही' के स्थान में 'भी' का प्रयोग करता है । निरपेक्ष वाक्य सदा ही हठ पर आधृत होता है; अतः वह विग्रह को पैदा करता है । सापेक्षवाद संसार के समस्त धर्मों, वादों और मान्यताओं के समन्वय की अमोघ महौषधि है ।
१. न श्वेताम्बरत्वे न दिगम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे ।
न पक्षसेवाऽऽश्रयणे न मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥ २. (क) नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् ।
-आ. गुणभद्र (ख) मनुष्यजातिरेकैव ।
--आ. जिनसेन
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