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________________ २२ समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि ४. समत्वयोग और अहिंसा समत्व की साधना का सोपान अहिंसा है । अहिंसा का पालक ही जीवन में समता को उतार सकता है । समता सिद्ध के लिए सब जीव समान होते हैं, सब जीवों के प्रति उसका मैत्री भाव होता है, किसी के प्रति भी बैरभाव नहीं होता । उसके द्वार सबके लिए खुले होते हैं । उसका उपदेश जीवमात्र के लिए होता है । इसीलिए तीर्थंकरों के समवसरण में मनुष्य, देव ही नहीं, तिर्यञ्च तक सम्मिलित होते हैं । यह उनकी समता का ही प्रभाव होता है कि चिरबैरी भी अपना बैरभाव भूल साथ-साथ रहने लगते हैं । सिंह और गाय एक-घाट पानी पीते हैं, साँप और नेवला एकसाथ खेलते हैं, चूहा बिल्ली से भयभीत नहीं होता, सिंह को देखकर भी मृग डर कर भागते नहीं, निर्भय खड़े रहते हैं। प्रमाद अर्थात् राग-द्वेष और मोह की अनुत्पत्ति ही अहिंसा है । समत्व का लक्षण भी यही है । हिंसा के अतिरिक्त अन्य कोई पाप नहीं है । झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह तो केवल उदाहरण के लिए, मुमुक्षु को समझाने के लिए बनाये गये हैं । अहिंसा के अतिरिक्त सब व्रत उसकी परिपालना के लिए ही . समत्व का साधक अपने उपास्य के प्रति भी आग्रही नहीं होता । उसका किसी के प्रति भी कोई पक्षपात नहीं होता । जिसके रागादि दोष क्षय हो चुके हैं वही उसका उपास्य होता है, फिर चाहे उसे ब्रह्मा, विष्णु, महादेव जिन आदि किसी भी नाम से पुकारें ।। किसी विशेष वेष अथवा वाद के प्रति भी उसका आग्रह नहीं होता । न वह श्वेताम्बरत्व को मुक्ति का साधन मानता है न दिगम्बरत्व को । नित्यत्ववाद, क्षणिकवाद से भी उसका कोई सरोकार नहीं । स्वपक्ष का आग्रह भी उसके नहीं होता । उसका लक्ष्य तो एकमात्र कषायों १. अहिंसाप्रतिपालनार्थमितरव्रतम् । -आ. पूज्यपादः सर्वार्थसिद्धि ७-१४. २. भवबीजाङ्करजननाः रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । -आ. हरिभद्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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