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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
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'नैगेटिव एप्रोच' नहीं है । यह एक सक्रिय और जागरूक वृत्ति है । जीवन की टूटन को भरने और समाज की विषमता को पाटने की यह व्यावहारिक कुंजी है । इससे एक ऐसी अनुभव - किरण फूटती है कि हम अपने दुःख से दुःखी नहीं होते वरन् दूसरों के दुःखों को मिटाने के लिए तत्पर होते हैं, अग्रसर होते हैं। सुख - दुःख से परे आनन्द की अनुभूति का नाम है समता ।
समता बहुआयामी और बहुप्रभावी तत्त्व है । उसे केवल दर्शन के धरातल से ही नहीं समझा जा सकता। जीवन व्यवहार के विभिन्न प्रसंगों और समाज-संवेदना की विविध परतों में रखकर ही उसका ओज और तेज पहचाना जा सकता है ।
भगवान महावीर और जैन धर्म आरम्भकाल से ही 'समता' पर विशेष बल दे रहे हैं । महावीर ने अपने अनुयायियों में सब वर्णों के लोगों को समान अवसर दिया । यद्यपि सभी तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, परन्तु जैन धर्म में जाति भेद नहीं है । महावीर कर्मणा जाति मानते थे । जैन धर्म में महावीर ने पूर्वापराधी चोर या डाकू, मछेरे, वेश्या और चाण्डाल पुत्रों को भी दीक्षित कर लिया ।
जन्मना - जातिगत विषमता न मानने के साथ ही महावीर विद्वान और मूर्ख, पढ़ा-लिखा और अनपढ़, साक्षर और निरक्षर का भेदभाव भी कृत्रिम मानते हैं । इसलिए वे 'निर्ग्रन्थ' ज्ञातपुत्र कहलाये । शब्द- प्रामाण्य मानने वाले धर्माचार्यों को उन्होंने चुनौती दी । धर्म क्या पुस्तक में बसता है या मनुष्य में ? अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य की प्राप्ति हर व्यक्ति के लिए समान भाव से सम्भव है । वहाँ तर - तमता नहीं है ।
जैन धर्म और दर्शन में 'मानव मानव सब हैं समान' के मन्त्र को प्रचलित करने की सुविधा इस कारण से हुई कि उन्होंने आत्मा से अलग किसी उच्च पदासीन ईश्वर का निषेध किया । तप और सत्कर्म से प्राप्त आत्मविश्वास की सर्वोत्तम अवस्था ही ईश्वरत्व है । मनुष्य अपने 'कर्म' से ही भाग्य-विधाता है । कोई अवतार या चमत्कार उसका उद्धार करने नहीं आयेगा । गीता के 'उद्धरेदात्मनात्मानं' और 'आत्मैवह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः' से बहुत मिलताजुलता विचार जैन दार्शनिकों ने सदियों तक प्रचारित किया । (समिया धम्मे) समता का नाम धर्म है । इस समता - सूत्र पर विचार करें तो यह बात भी स्पष्ट
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