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________________ १६ समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि कभी वह भगवान को कोसता है, कभी कर्मों को, तो कभी किसी निमित्त को दोष देता है, अथवा कभी इस अशान्ति के लिए अपने माता-पिता या अन्य जनों को उत्तरदायी ठहराता है । ये और ऐसी ही विषमताएँ आज के अधिकांश मनुष्यों के जीवन में व्याप्त हैं, जिनके कारण वे अक्षय-सुख तो दूर रहा, लौकिक सुखों को भी प्राप्त नहीं कर सकते, उनके तन-मन में अशान्ति है । वे इसके निवारण के लिए यन्त्र-मन्त्रादि का सहारा लेते हैं, अनेक देवी देवों की मनौती करतें हैं, फिर भी सफलता नहीं मिलती। संसार अपने आप में कोई विषम नहीं है, न विकृत ही, इसे विषम या विकृत बनाने वाली मनुष्य की दृष्टि है। यदि विषम परिस्थिति में या विषम स्थिति में पड़े हुए व्यक्ति के विषय में समतायोग की दृष्टि हो तो संसार सम हो सकता है, कम से कम उस समतायोगी के लिये तो संसार समसूत्र पर स्थित हो जाता है । वास्तव में संसार में विषमता राग और द्वेष के कारण होती है। यदि सर्वत्र, सभी परिस्थितियों एवं संयोगों में राग और द्वेष से दूर रहा जाए तो उस व्यक्ति के लिए संसार के सम होते देर नहीं लगती । इसीलिए आचार्य कहते है : इतो रागमहाम्भोधिरितो द्वेषदवानलः । यस्तयोर्मध्यगः पन्थास्तत् साम्यमिति गीयते ॥ संसार के दो छोर हैं एक ओर रागरू पी महासमुद्र है तो दूसरी ओर द्वेषरूपी दावानल है । इन दोनों छोरों के बीच में जो मार्ग है, जिससे राग-द्वेष दोनों का लगाव नहीं है वह साम्य है - समतायोग कहलाता है। समता प्रकृति का नहीं व्यक्ति, समाज और युग का धर्म भी है। जबजब समता धर्म से विचलित हुआ है, तब-तब प्रकृति में विकृति, व्यक्ति में तनाव, समाज में विषमता और युग में हिंसा के तत्त्व उभरे हैं । इन सबको रोकने, सबमें संतुलन और व्यवस्था बनाये रखने के लिए समता भाव की सम्यक् रूप में प्रतिष्ठा होना आवश्यक है । इस दृष्टि से समता सिद्धान्त विज्ञान भी है और कला भी । विज्ञान के रूप में समता का सिद्धान्त भूत-पदार्थों में संगति बनाये रखता है, तो कला के रूप में चेतना के स्तर पर, शेष सृष्टि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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