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बन्धहेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है
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सम्पूर्ण कर्मों का क्षय ही मोक्ष है ।
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जैन योग में मोक्ष का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। मानव आत्मविकास की क्रमश: सीढ़ियों को पार करता हुआ शुद्ध आत्मस्वरूप की स्थिति तक पहुँचता है । आत्मसाक्षात्कार अर्थात् आत्मविकास की वह परम स्थिति ही मोक्ष है । इसे पाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की एकरूप परिपूर्णता अपेक्षित है, जो योग का ही आनुषंगिक रूप है, क्योंकि रागादिभावों से युक्त होने पर आत्मा चतुर्गतियों में भ्रमण करती है और जब यह भ्रमण यानी मन का व्यापार रुक जाता है तब समस्त कर्मों का आवागमन रुक जाता है और आत्मा स्वभावत: निजस्वरूप में स्थित हो जाती है। तेरहवें गुणस्थान अथवा सूक्ष्म क्रिया की प्राप्ति होते हुए भी मुक्ति नहीं होती। अतः जब सम्पूर्ण योग (क्रिया) निरोधरूप चारित्रपूर्ण होता है तभी मुक्ति होती है। इस प्रकार संसार - बन्धन एवं उसके कारणों का सर्वथा अभाव तथा आत्मविकास की पूर्णता ही मोक्ष है अर्थात् संवर एवं निर्जरा द्वारा कर्मों का सम्पूर्ण उच्छेद ही मोक्ष है क्योंकि संवर द्वारा जहाँ आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश सर्वथा रुक जाता है वहाँ निर्जरा से संचितकर्मों का पूर्णतः क्षय हो जाता है और तभी जीव (आत्मा) अनन्त सुख का अनुभव करता है ।
समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
आचार्य पूज्यपाद ने मोक्ष की परिभाषा इस प्रकार दी है
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'कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः । २
१. तत्त्वार्थसूत्र २३५, श्लोक २-३ १. सर्वार्थसिद्धि १/४
सम्पूर्ण कर्म का वियोग मोक्ष है। बन्धन मुक्ति को मोक्ष कहते हैं । बन्ध के कारणों का अभाव होने से, संचित कर्मों की निर्जरा होने से समस्त कर्मों का सम्पूर्ण रूप से उच्छेद होना मोक्ष है। संसार अवस्था में आत्मा की वैभाविक शक्ति का विभाव रूप में परिणमन होता है, उस विभाव परिणमन के निमित्त नष्ट हो जाने से मोक्ष में उसका स्वाभाविक परिणमन हो जाता है । विभाव के कारण से आत्मा के गुण जो विकृत हो रहे थे, 1 वे स्वाभाविक दशा में आ जाते हैं, मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन हो जाता है, अज्ञान ज्ञान हो जाता है, अचारित्र चारित्र हो जाता है। आत्मा का सम्पूर्ण नक़शा ही परिवर्तित हो जाता है ।
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