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समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक,....
(९) साधुमती - प्रत्येक जीव के मार्गदर्शन के लिए (योगी को) उस जीव का अधिकार जानने की सम्पूर्ण शक्ति जब प्राप्त होती है, तब वह भूमिका साधुमती कहलाती
(१०) धर्ममेघा - सर्वज्ञत्व प्राप्त होने पर धर्ममेघा की भूमिका प्राप्त होती है । महायान की दृष्टि से इसी भूमिका पर पहुँचे साधक को तथागत कहा जाता है।
इस प्रकार बौद्ध योग के अन्तर्गत आध्यात्मिक विकास को अज्ञानावस्था के क्रमिक हास के सन्दर्भ में देखा जा सकता है, क्योंकि अज्ञानावस्था को त्यागकर ही ज्ञानप्राप्ति सम्भव है, जो निर्वाणप्राप्ति का अभीष्ट है।
(५) मोक्ष : जीवन चेतन तत्त्व की सन्तुलन शक्ति है। चेतना जीवन है और जीवन का कार्य है समत्व का संस्थापन । नैतिक जीवन का उद्देश्य एक ऐसे समत्व की स्थापना करना है, जिससे आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष, आन्तरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति के बाह्य प्रयासों का संघर्ष समाप्त हो जाये। समत्व जीवन का साध्य है, वही नैतिक शुभ है। कामना, आसक्ति, राग, द्वेष आदि सभी जीवन की विषमता, असन्तुलन या तनाव अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं इसके विपरीत वासनाशून्य, निष्काम, अनासक्त एवं वीतरागदशा ही नैतिक दृष्टि से शुभ मानी जा सकती है, क्योंकि यही समत्व का सृजन करती है। समत्वपूर्ण जीवन ही आदर्श जीवन है। पूर्ण समत्व की यह अवस्था जैन धर्म में वीतराग दशा, गीता में स्थितप्रज्ञता तथा बौद्ध दर्शन में आर्हतावस्था के नाम से जानी आती है।
भगवद् गीता और जैन दर्शन में जिस मोक्ष और बौद्ध दर्शन में जिस निर्वाण की परिकल्पना है, वह तो पूर्ण समत्व की अवस्था है। वस्तुत: मोक्ष या निर्वाण मरणोत्तर स्थिति नहीं है। हम इस समत्व की साधना के मधुर फल का रसास्वादन, इसी जीवन में कर सकते हैं। जिसने जीवन के इस परम लक्ष्य को प्राप्त कर लिया उसे सदा सर्वदा के लिए सत् - चित्-आनन्दमय स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। इसी स्थिति को हम पूर्ण समत्व एवं शान्ति की अवस्था कहते हैं। जैन योग से मोक्ष :
“बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् ॥२॥ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ॥३॥
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