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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि समत्व प्राप्ति की प्रक्रिया - योग, तप, आध्यात्मिक विकास-क्रम एवं मोक्ष
(१) योग : अध्यात्म साधना की दृष्टि से भारत भूमि एक अत्यत उर्वरा भूमि रही है। यहाँ की संस्कृति में मानवजीवन के कुछ विशिष्ट उद्देश्य माने गए हैं। इन उद्देश्यों की संख्या चार मानी गई है। वे हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इन्हें 'पुरुषार्थ' नाम से भी अभिहित किया जाता है। प्रत्येक आस्तिक विचारधारा ‘मुक्ति' को अन्तिम लक्ष्य के रूप में प्रतिपादित करती है और उसकी प्राप्ति के लिए अपनी-अपनी दृष्टि से उपायों का निरूपण करती है। भारतीय दर्शनों में योग दर्शन' का पृथक् व स्वतन्त्र स्थान है। ‘अष्टांग योग मार्ग' के रूप में आध्यामिक यात्रा के विविध सोपानों का इसमें सविस्तर वर्णन है। योग दर्शन' के अनुसार, चित्त-वृत्तियों के निरोध के मार्ग पर बढ़ते हुए तप और ध्यान-साधना के द्वारा समाधि की उच्च-उच्चतर अवस्थाओं को पार करते हुए, अन्त में अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाना ही साधना का परम लक्ष्य है।
___ सुख-प्राप्ति का मार्ग जैन धर्म ने योग के रूप में बताया है। योग जीवन में समता लाने का अभ्यास है।
जैन परम्परा आत्मा में अनन्त शक्ति मानती है और उस शक्ति का पूर्ण विकास कर आत्मा से परमात्मा बनने की उसमें क्षमता है। श्री हेमचन्द्राचार्य ने इस आत्मशक्ति के पूर्ण विकास का साधन योग बताया है ।
जबकि आचार्य हरिभद्रसूरि ने सभी दु:खों से मुक्त होने के साधन को योग कहा है। आत्मा की सभी दु:खों से मुक्ति होकर निज स्वभाव की प्राप्ति योग द्वारा होती है।
___ सभी धर्म मनुष्य को दु:खों से मुक्त होने का उपाय बताते हैं, क्योंकि मनुष्य की सहज प्रेरणा दु:ख से मुक्त होकर सुख-प्राप्ति की होती है। उसमें योग ऐसी प्रक्रिया है जिससे मनुष्य दुःख से मुक्त होता है।
मनुष्य की सुख-प्राप्ति में बाधक कौनसी बातें हैं जो उसे दु:खी बनाती हैं ? यह विचार करने पर दिखाई देगा कि राग और द्वेष ये दो उसके ऐसे महान् शत्रु हैं जो उसे सुख के मार्ग से भटका कर दु:ख में डालते हैं। समस्या का मूल रांग-द्वेष कषाय है। कषाय से मन या
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