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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
२६७ करके, अनेकान्त रूप वस्तु-तत्त्व प्राप्त कर आत्म-साक्षात्कार कर सकता है, अन्त: चतुष्टय और सिद्धान्त की प्राप्ति संभव हो सकती है।
दलसुखभाई मालवणिया लिखते हैं कि - " निस्सन्देह सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है। वह राग-द्वेष रूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत प्रयास करता है; दूसरे के सिद्धान्तों को आदर-दृष्टि से देखता है और माध्यस्थ्य-भाव से संपूर्ण विरोधों का समन्वय करता है।
इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्वदेव-समभाव का परिचय देते हुए कहा -
“भव-बीजांकुरजनना, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य ।
__ ब्रह्मा या विष्णु वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥" संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं उसे में प्रणाम करता हूँ ; चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शिव हों या जिन हों।" ___अनेकान्त ही एक ऐसी दृष्टि है जिसके आधार पर समता, समन्वय व शान्ति स्थापित की जा सकती है।
"स्याद्वादः सत्यलांछन: जैन जयतु शासनम् । जैनेन्द्रधर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥"
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