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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार अनेकान्तवाद
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अनेकान्त कोरा दर्शन नहीं है, यह साधना है। एकांगी आग्रह राग और द्वेष से प्रेरित होता है। राग-द्वेष क्षीण करने का प्रयत्न किए बिना एकांगी आग्रह या पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से मुक्ति नहीं पायी जा सकती। जैसे-जैसे राग-द्वेष क्षीण होता है, वैसे-वैसे अनेकान्तष्ट विकसित होती है । जैसे जैसे अनेकान्त दृष्टि विकसित होती है वैसे-वैसे राग-द्वेष क्षीण होता है। जैन दर्शन ने राग-द्वेष को क्षीण करने के लिए अनेकान्त - दृष्टि प्रस्तुत की । एकांगी दृष्टि से देखनेवाले दार्शनिक दर्शन का सही उपयोग नहीं कर पाते । दर्शन सत्य का साक्षात्कार करने के लिए है। राग-द्वेष में फँसा व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार कैसे कर सकता है । सत्य की उपलब्धि के नाम पर जहाँ राग-द्वेष की वृद्धि होती है, वहाँ दर्शन की दिशा सर्वथा विपरीत हो जाती है। दर्शन सत्य की उपलब्धि के लिए और सत्य, समता और शान्ति की उपलब्धि के लिए है । जब शान्ति की उपलब्धि के हेतु भी अशान्ति के हेतु बन जाते हैं तब ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ज्योतिपुंज से तिमिर की रश्मियाँ विकीर्ण हो रही हैं ।
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जैन दर्शन में तर्क-सत्य की अपेक्षा अनुभव - सत्य अधिक है । आग्रही मनुष्य अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए तर्क खोजता है और आध्यात्मिक व्यक्ति सत्य की अभिव्यक्ति के लिए तर्ककी खोज करता है। तर्क व्यवहार की भूमिका का उपकरण है । सत्य वास्तविकता की गहराइयों में जाने पर उपलब्ध होता है । जैन दर्शन इस उपलब्धि का अन्यतम ऋजु मार्ग है । वह एक दर्शन नहीं है, किन्तु दर्शनों का समुच्चय है । अनन्त दृष्टियों के सहअस्तित्व को मान्यता देनेवाला एक दर्शन कैसे हो सकता है ? जैन दर्शन के अध्ययन का अर्थ है, सब दर्शनों का अध्ययन और सब दर्शनों के सापेक्ष अध्ययन का अर्थ है जैन दर्शन का अध्ययन |
उपाध्याय यशोविजयजी ने शास्त्रज्ञ की पहचान के लिए तीन मानदण्ड प्रस्तुत किए१. अनेकान्त
२. माध्यस्थ्यभाव
३. उपशम - कषाय की शान्ति ।
" जो व्यकित मोक्ष को दृष्टि में रखते हुए अनेकान्त चक्षु से सब दर्शनों की तुल्यता को देखता है, वही शास्त्रज्ञ है ।
१. अध्यात्मोनिषद्, १/७;
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"तेन स्याद्वादमालम्ब्य, सर्वदर्शनतुल्यताम् । मोक्षोद्देशाद् विशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ॥”
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