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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि मार्ग पर आये हुए व्यक्ति की सबसे बड़ी प्रधानता यह होती है कि वह दुराग्रही नहीं होता, न वह यही कहता है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वही सत्य है। अपने ऊपर एक प्रकार की श्रद्धा तथा यह भाव कि कदाचित् प्रतिपक्षी का मत
ठीक हो, ये अनेकान्तवादी मनुष्य के प्रमुख लक्षण हैं।" अब हम श्री रामधारी सिंह दिनकर के विचारों को देखें । वे लिखते हैं - “जैन दर्शन केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत वह बौद्धिक
अहिंसा को भी अनिवार्य बताता है। यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन दर्शन का
अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण-पर्याय और धर्मों का अरूप पिंड है। वस्तु को हम जिस कोण से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नहीं है। उसमें अनन्त दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है । हमें जो दृष्टिकोण विरोधी मालूम होता है उस पर ईमानदारी से विचार करें तो उसका विषयभूत धर्म भी वस्तु में विद्यमान है। चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालें और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजें, वह भी वहीं लहरा रहा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना ही शीघ्र अपनायेगा विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।
आधुनिक विचारक संत विनोबा भावे अनेकान्त के विषय में लिखते हैं - “अपना सत्य तो सत्य है ही किन्तु दूसरा जो कहता है, वह भी सत्य है। दोनों सत्य
मिलकर पूर्ण सत्य होता है। यही महावीर का स्याद्वाद है।" गाँधीवादी विचारक काका कालेलकर लिखते हैं“मेरे पास जो ‘समन्वय दृष्टि' है यह मैं जैनियों के “अनेकान्तवाद" से सीखा हूँ।
अनेकान्तवाद ने मुझे बौद्धिक अहिंसा सिखाई, इसके लिए मैं जैन दर्शन का
ऋणी हूँ।"३ १. संस्कृति के चार अध्याय पृ० १३५ २. अमर भारती : जून १९७२ अंतिम पृष्ठ। ३. जैन दर्शन-जगत समन्वय विशेषांक १९७२, पृ० २११ ।
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