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समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद
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श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों का अवलोकन करेंगे। श्री मिश्रा लिखते हैं " माया की अवधारणा शंकर और टैगोर कुछ भिन्न प्रकार से करते हैं। शंकर का कहना था कि माया न सत् है, और न असत् । टैगोर कहते है कि माया है और नहीं भी है । यह सिद्धान्त वल्लभ प्रतिपादित माया से अधिक साम्य रख्ता है । ससीमता और अनेकता का अनुभव होने के कारण माया का अस्तित्व मानना पड़ता है । अनन्त सत्ता की अखंडता का बोध हो जाने पर माया विलीन हो जाती है । इसलिए कहा जाता है कि वह नहीं है
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उपर्युक्त कथन में श्री टैगोर ने माया का अस्तित्व एवं नास्तित्व दोनों बतलाये हैं और उनमें कारण है - अपेक्षाभेद । यह स्पष्ट अनेकान्त दृष्टि से प्रतिपादित किया हुआ प्रतीत होता है ।
अब महात्मा गाँधी के विचारों को लीजिए। वे लिखते हैं
" उनके लिए वह एक है और अनेक है । अणु से भी छोटा और हिमालय से भी बड़ा है। वह जल के एक बिन्दु में समा सकता है और सात समुद्र मिलकर उसकी समानता नहीं कर सकते हैं । " २
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उपर्युक्त कथन में ईश्वर को एक एवं अनेक, छोटा एवं बड़ा बतलाया गया है। परस्पर विरुद्ध भासित होने वाले धर्मों को अपेक्षाभेद से एक ही ईश्वर में निरूपित किया गया है। यह स्पष्ट अनेकान्त का चिन्तन है ।
श्री दिनकर गाँधीजी के विचारों के विषय में लिखते हैं
"अनेकान्त जैन दर्शनों में सोया हुआ था। भारतवासी जैसे अपने दर्शन की अन्य बातें भूल चुके थे, वैसे ही अनेकान्तवाद का यह दुर्लभ सिद्धान्त भी उनकी आँखों से ओझल हो गया था । किन्तु नवोत्थान के क्रम में जैसे हमारे अनेक प्राचीन सत्यों ने दुबारा जन्म लिया, वैसे ही गाँधीजी में आकर अनेकान्तवाद ने भी नवजीवन प्राप्त किया। संपूर्ण सत्य क्या है - इसे जानना बड़ा ही कठिन है। तात्त्विक दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक सत्यान्वेषी सत्य के जिस पक्ष के दर्शन करता है, वह उसी की बातें बोलता है, इसीलिए सत्य के
१. समकालीन दर्शनिक चिंतन पृ० १०३ ।
२. समकालीन दर्शनिक चिंतन पृ. १०५
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