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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं। बाह्य जगत की व्याख्या के लिए इस दर्शन ने माया के सिद्धान्त का निर्माण किया है। माया अनिर्वचनीय है। यह है और नहीं भी है। इसके लिए निश्चय और व्यवहार का आश्रय लिया गया है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - रूप तीन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। जब ब्रह्म माया से अविच्छिन्न होता है, तब ईश्वर का रूप निर्माण कर जगत् के सर्जन में प्रवृत्त होता है। जगत् ब्रह्म का विवर्त है। जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं, उसी तरह जगत् ब्रह्म का बाह्य रूप है। संसार से निवृत्ति के लिए माया से ब्रह्म का पार्थक्य आवश्यक है। आचार्य बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' में इसका अच्छा वर्णन किया है। शंकर ने भाष्य लिखकर इस सिद्धान्त की अच्छी तरह परिपुष्टि कर अद्वैत तत्त्व की स्थापना की। रामानुज ने इसी पर भाष्य लिखकर विशिष्टाद्वैत की स्थापना की है। माध्वाचार्य, निम्बार्क, आदि आचार्यों ने भेदाभेद आदि सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर, अद्वैत-तत्त्व ही सर्वप्रधान है, यह स्थापित किया है। माया के क्षेत्र में स्याद्वाद का आश्रय लिया गया है। (२) चार्वाक दर्शन और स्याद्वाद ___चार्वाक दर्शन भौतिक दर्शन है। इसका प्रतिपादन सृष्टि-कर्तृत्व तथा सृष्टिअभिव्यक्ति द्वारा हुआ है। कुछ लोग भूत-चतुष्टय को विश्व का कर्ता मानते थे, और कुछ लोग एक तत्त्व से सृष्टि की अभिव्यक्ति मानते थे। वहाँ केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण था। अत: जीवन को सुखमय बनाना या ऐहिक सुखवाद ही उनके जीवन का लक्ष्य था। चार्वाक दर्शन के लोग जड़ पदार्थ से ही निर्जीव तत्त्व और जीवन-तत्त्वनी की व्याख्या करते हैं, जो बिना स्याद्वाद दृष्टि को अपनाए नहीं बनती। अंत: चार्वाक का यह चिन्तन स्याद्वाद का आधार लिये प्रतीत होता है। भौतिक क्षेत्र में स्याद्वाद को अपनाना स्याद्वाद का निषेध नहीं कहा जा सकता। (३) पाश्चात्य दर्शन और स्याद्वाद
पाश्चात्य देशों में दर्शन (Philosophy) बुद्धि का चमत्कार रहा है। वहाँ लोग ज्ञान को मात्र ज्ञान के लिए ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते हैं। पाश्चात्य विचारों के अनुसार दार्शनिक वह है जो जीव, जगत, परमात्मा, परलोक आदि तत्त्वों का निरपेक्ष विद्यानुरागी हो । पाश्चात्य जगत का आदि दार्शनिक प्लेटो कहता है - “संसार के समस्त पदार्थ १. ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मेव नापरः । २. जन्माद्य ब्रह्मस्य यत:-ब्रह्मसूत्र - | ३. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् - चार्वाक् दर्शन
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