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समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक आचरण मिथ्या हो ?" प्रतिक्रमण के प्रकार
समान्य रूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का है द्रव्य-प्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण । यहाँ भाव-प्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य-प्रतिक्रमण नहीं । द्रव्य-प्रतिक्रमण वह है, जो बिना उपयोग के, प्रतिक्रमण के पाठों का अर्थ समझे-बूझे बिना केवल तोतारटन की तरह किया जाता है, यश या प्रतिष्ठा लूटने के लिए, जो केवल दिखाने के लिए, देखादेखी, शर्माशी किया जाता है, जिसमें किसी दोष का प्रतिक्रमण कर लेने के बाद भी पुन: पुन: उस दोष का सेवन किया जाता है।
द्रव्य प्रतिक्रमण से आत्मा की शुद्धि नहीं होती, बल्कि कई बार कपट क्रिया हो जाने से द्रव्य प्रतिक्रमण आत्मा को और अधिक अशुद्ध कर देता है। साधक ढीठ होकर उसी दोष को लगातार बढ़ाता जाता है, तब प्रतिक्रमण करने का उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
भाव प्रतिक्रमण का अर्थ भगवती आराधना' में इस प्रकार किया गया है :
“आर्त्तरौद्र इत्यादि अशुभ परिणाम एवं पुण्यास्रव के कारणभूत शुभ परिणाम भाव कहलाते हैं, इन दोनों प्रकार के शुभाशुभ भावों से निवृत्त होकर शुद्ध परिणामों में स्थित होना भाव प्रतिक्रमण कहलाता है।"
आचार्य हरिभद्र ने आवश्यक नियुक्ति के विवेचन में भाव-प्रतिक्रमण की व्याख्या इस प्रकार की है
मन, वचन और काया से मिथ्यात्व, कषाय आदि दुर्भावों में स्वयं गमन न करना, न दूसरों को गमन ना. न गमन करने वालों का अनुमोदन करना ही भाव प्रतिक्रमण है ।
काल के भेद स भगवतीसूत्र में प्रतिक्रमण तीन प्रकार का बताया गया है 'अइयं पडिक्कमेइ, पडुपन्नं संवरेइ, अणागयं पच्चक्खाइ ।'
भूतकाल में लगे दुर दोषों की आलोचना प्रतिक्रमण करना, वर्तमान-काल में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचना तथा प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को रोकना; इस प्रकार प्रतिक्रमण
आर्त रौद्रमित्यादयोऽशुभपरिणामः, पुण्यास्रव भूताश्च शुभपरिणामा इह भाव शब्देन गृह्यन्ते; तेभ्यो निवृत्ति: भावप्रतिक्रमणमिति । भगवती आराधना वि. ११६/२७५/१४
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