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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
ईसाई धर्म में बपतिस्मा ( प्रवेश) संस्कार के समय एवं मरण काल में पादरी के समक्ष एकान्त में अब तक के अपने सारे पाप कहने होते हैं। इस कन्फैशन (पाप - स्वीकार) को अत्यन्त पवित्र और आवश्यक माना गया है। इससे उसके मन पर चढ़ा भार हलका हो जाता है। मन के भीतर दुराव की जो गाँठ बँधी रहती हैं, वे खुल जाती हैं, अन्यथा उन मानसिक ग्रन्थियों से अनेक शारीरिक मानसिक रोग उठ खड़े होते हैं । दुराव की गाँठों से छुटकारा न मिलने पर व्यक्ति चिड़चिड़ा, कुढ़नेवाला, मनहूस, गुमसुम, अर्धविक्षिप्त, अर्धांगग्रस्त-सा, अर्धमृत-सा हो जाता है । स्वच्छ, निष्कपट एवं दुरावरहित मन ही समतायोगी के गौरवपूर्ण व्यक्तित्व में वृद्धि करता है ।
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महात्मा गाँधी के जीवन की एक घटना इस सम्बन्ध में अपूर्व प्रेरणादायक है गाँधीजी उस समय बालकही थें। बुरी संगति में पड़कर किसी से कर्ज़ ले लिया । जब कर्जदार तंग करने लगा तो उन्होंने घर से थोड़ा सा सोना चुरा लिया और कर्ज़ चुका दिया ।
कर्ज़ का भार तो हलका हो गया, लेकिन गाँधीजी चोरी के पश्चात्ताप से मन ही मन झुलसने लगे। सोचा पिताजी से जाकर कह दूँ; पर सीधे जाकर कहने का साहस न हुआ । अतः उन्होंने अपने पिताजी को एक पत्र लिखा जिसमें अपना दोष स्वीकार कर लिया और भविष्य में वैसा न करने का दृढ़ संकल्प भी व्यक्त किया । पुत्र की सच्ची निश्छल आत्मा ने पिता को हर्षित कर दिया । उन्होंने सच्चे दिल से उस अपराध को क्षमा कर दिया। तब से गाँधीजीने शिक्षा ली - सच्चे हृदय से अपराध स्वीकार लेने से मन का मैल धुल जाता है। सचमुच मन की गाँठें खोल देने पर दूसरों का ही नहीं, अपना ही लाभ है ।
आचार्यश्री अमितगति के सामायिक पाठ का यह पाँचवाँ श्लोक है। इसमें आचार्यश्री आत्मशुद्धि के सन्दर्भ में प्रतिक्रमण करने का निर्देश समतायोगी साधक के लिए किया है। श्लोक इस प्रकार हैं
एकेन्द्रियाद्या यदि देव ! देहिनः, प्रमादतः संचरता इतस्तत: । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडितास् तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥
" हे समतामूर्ति वीतराग देब ! इधर-उधर प्रमादपूर्वक विचरण करते हुए मेरे द्वारा यदि एकेन्द्रिय आदि प्राणी नष्ट हुए हों, टुकडे कर दिये गये हों, निर्दयतापूर्वक मल दिये गये या मसल दिये गये हों, किंबहुना, किसी भी प्रकार से दुःखित पीड़ित किये गये हों तो वह सब मेरा
दुष्ट
१. सामायिक पाठ अमितगति श्लोक ५
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