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समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक
२०३ जो हमसे शत्रुता करते हैं, जो हमसे द्वेष रखते हैं, जो हमारी निन्दा करते हैं, जो हमें धोखा देते हैं; हे भगवन् ! हे ईश्वर ! तुम उन सब दुष्टों को भस्म कर डालो।
यह सब उद्धरण लिखने का अभिप्राय किसी विपरीत भावना को लिए हुए नहीं है। और मैं यह भी नहीं मानती कि वेदों में इसी प्रकार की द्वेषमूलक भावनाएँ भरी हैं। ऋग्वेद आदि में जीवन की उदात्त मधुर एवं निर्मल भावनाओं का प्रवाह है। अच्छा होता प्रार्थना में उन उदात्त भावनाओं को स्थान दिया जाता। यहाँ पर तो केवल प्रसंगवश, सामायिक के साथ तुलना करने के लिए ही इस और लक्ष्य दिया है।
वैदिक धर्म की दोनों ही शाखाओं की सन्ध्या का वर्णन ऊपर किया गया है। और इधर सामायिक अपने समक्ष है ही। अत: तुलना कर सकते हैं, किसमें क्या विशेषता है ? सामायिक में हृदय की पवित्रता
सामायिक के पाठों में प्रारम्भ से ही हृदय की कोमल एवं पवित्र भावनाओं को जागृत करने का प्रयत्न किया गया है। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े किसी भी प्राणी को यदि कभी ज्ञात या अज्ञात रूप से किसी तरह की पीड़ा पहुँची हो, तो उसके लिए इर्यापथिक आलोचनासूत्र में पश्चात्तापपूर्वक 'मिच्छा मि दुक्कडं दिया जाता है। तदनन्तर अहिंसा और दया के महान् प्रतिनिधि तीर्थंकर देवों की स्तुति की गई है, और उसमें आध्यात्मिक शान्ति, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् समाधि के लिए मंगल कामना की है। पश्चात् ‘करेमि भंते' के पाठ में मन से, वचन से और शरीर से पाप-कर्म करने का त्याग किया जाता है। साम्य भाव के आदर्श को प्रतिदिन जीवन में उतारने के लिए सामायिक एक महती अध्यात्मिक प्रयोग-शाला है । सामायिक में आर्त और रौद्र ध्यान से अर्थात् शोक और द्वेष के संकल्पों से अपने आपको सर्वथा अलग रखा जाता है और हृदय के कण-कण में मैत्री, करुणा आदि उदात्त भावनाओं के आध्यात्मिक अमृतरस का संचार किया जाता है। आप देखेंगे, सामायिक की साधना करनेवाले के चारों
ओर विश्वप्रेम का सागर किस प्रकार ठाठ मारता है। यहाँ द्वेष, घृणा आदि दुर्भावनाओं का एक भी ऐसा शब्द नहीं है, जो जीवन को जरा भी कालिमा का दाग लगा सके। पक्षपात रहित हृदय से विचार करने पर ही सामायिक की महत्ता का ध्यान आ सकेगा। जैन, बौद्ध, वैदिक सन्ध्या तथा पारसी धर्म-सम्प्रदाय में प्रचलित आवश्यक क्रिया
का तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध लोग अपने मान्य 'त्रिपिटक' ग्रन्थों में से कुछ सूत्रों को ले कर उन का नित्य पाठ १. दर्शन और चिंतन, पं. सुखलालजी
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