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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि ही बता सकते हैं । इन्द्रियो की शुद्धि तो सदाचार के ग्रहण और दुराचार के त्याग में है, जिसके लिए इस संध्या में भी कोई खास संकल्प एवं प्रवृत्ति दृष्टि गोचर नहीं होती ।
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मनसा परिक्रमा का प्रकरण सन्ध्या में क्यों रक्खा है ? यह बहुत कुछ विचार करने के बाद भी समझ में नहीं आता । मनसा परिक्रमा में एक मंत्र है, जिसका आखिरी भाग है'योस्मान् द्वैष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ' ॥'
इसका अर्थ हैं, जो हम से द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं; उसको है प्रभु ! हम तुम्हारे जबड़े में रखते हैं ।
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सभी जानते हैं, जबड़े में रखने का क्या फल होता है ? नाश। यह मंत्र छः बार प्रातः और छः बार सायंकाल की संन्ध्या में पढ़ा जाता है । विचार करने की बात है कि यह सन्ध्या है या वही दुनियावी तू तू मैं मैं । सन्ध्या में बैठकर भी वही द्वेष वही घृणा, वही नफरत, वही नष्ट करने - कराने की भावना ! फिर सांसारिक क्रियाओं और धार्मिक क्रियाओं में अन्तर ही क्या रहा ? मारा-मारी के लिए तो संसार की झंझटें ही बहुत है । सन्ध्या में तो हमें उदार, सहिष्णु, दयालु, स्नेही मनोवृत्ति का धनी बनना चाहिए तभी हम परमात्मा से सन्धि एवं मेल साध सकते हैं । इस कूडे कर्कट को लेकर तो परमात्मा से सन्धि-मेल तो दूर, उस को मुख दिखलाने के लायक भी हम नहीं रह सकते। क्या ही अच्छा होता, यदि इस मन्त्र में अपराधी के अपराध को क्षमा करने की, वैर-विरोध के स्थान में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और स्नेह की प्रार्थना की होती ।
उपर्युक्त आशय का ही एक मंत्र यजुर्वेद का है, जो सन्ध्या में तो नहीं पढ़ा जाता; परंतु अन्य प्रार्थनाओं के क्षेत्र में वह भी विशेष स्थान पाये हुए हैं। वह मंत्र भी शत्रुओं से संत्रस्त किसी विक्षुब्ध, हृदय की वाणी है ।
" योऽस्मभ्यमरातीयाद्यश्च नो द्विषते जन: ।
निन्द्याद् योऽअस्मान् धिप्साच्य सर्व भस्मसा कुरु
अर्थ वेद कां. ३ सू. २७ मं. १६
सातवलेकर द्वारा सम्पादित वि. सं. १९९९ में मुद्रित संस्करण ।
यजुर्वेद ११/८०,
सातवलेकर द्वारा संपादित वि.सं. १९९८ में मुद्रित संस्करण ।
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