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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि सनातनी पुरानी मान्यताओं के पक्षपाती हैं, जबकि आर्यसमाजी नवीन धारा के अनुयायी। वेदों का प्रमाण्य दोनों को ही समान रूप से मान्य है, अत: दोनों ही वैदिक शाखाएँ है । सर्वप्रथम सनातन धर्म की सन्ध्या का वर्णन किया जाता है। संन्ध्या : स्वरूप और विधि
सनातन धर्म की सन्ध्या केवल प्रार्थनाओं एवं स्तुतियों से भरी हुई है। विष्णु-मंत्र के द्वारा शरीर पर जल छिड़क कर शरीर को पवित्र बनाया जाता है, पृथ्वी माता की स्तुति के मंत्र से जल छिड़क कर आसन को पवित्र किया जाता है। इसके पश्चात् सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम पर चिंतन होता है। फिर प्राणायाम का चक्र चलता है। अनि, वायु, आदित्य, बृहस्पति, वरुण, इन्द्र और विश्व देवताओं की बड़ी महिमा गाई जाती है। सप्त व्याहृति इन्हीं देवो के लिए होती हैं । जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वैदिक ऋषि बड़ी ही भावुकता के साथ जल की स्तुति करता है 'हे जल ! आप जीवमात्र के मध्य में से विचरते हो । इस ब्रह्मान्डरूपी गुफा में सब ओर आपकी गति है । तुम्ही यज्ञ हो, वषट्कार हो, अप हो, ज्योति हो, रस हो, और अमृत भी तुम्हीं हो
ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु, गुहायां विश्वतोमुखः ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार, आपो ज्योतीरसोऽमृतम् ॥ सूर्य को तीन बार जल का अर्घ्य दिया जाता है, जिसका आशय है कि प्रथम अर्घ्य से राक्षसों की सवारी का, दूसरे से राक्षसों के शस्त्रों का, और तीसरे से राक्षसों का नाश होता है। इस के बाद गायत्री मंत्र पढ़ा जाता है, जिसमें सविता सूर्य देवता से अपनी बुद्धि की प्रस्फूर्ति के लिए प्रार्थना है। अधिक क्या, इसी प्रकार स्तुतियों, प्रार्थनाओं एवं जल छिड़कने आदि की एक लंबी परंपरा है, जो केवल जीवन के बाह्याचार से ही सम्बन्ध रखती है। अन्तर्जगत की भावनाओं को स्पर्श करने का और पाप-मल से आत्मा को पवित्र बनाने का कोई संकल्प व उपक्रम नहीं देखा जाता।
हाँ, एक मंत्र अवश्य ऐसा है, जिसमें इस और कुछ थोड़ा बहुत लक्ष्य दिया गया है । वह यह है --
“ओम् सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद् अन्हा यद् रात्र्या पापमकार्ष मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु, यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इदमहमापोऽमृतयोनी सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा।'
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