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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि अतिचार से संपूर्ण व्रत भंग नहीं होता परन्तु व्रत में अशुद्धि का प्रवेश हो जाता है । अनाचार से संपूर्णतया व्रत-भंग होता है।
सामायिक के निम्न प्रकार के पाँच अतिचार बताये गये हैं :
(१) मनो-दुःप्रणिधान (२) वचन-दुःप्रणिधान (३) काय-दुःप्रणिधान (४) अनादर (५) स्मृत्यनुस्थापन ।
(१) मनो-दुःप्रणिधान : दुःप्रणिधान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता का संपूर्ण संरक्षण न होने से चित्त में सावद्ययोग या पाप कर्मों का प्रवेश । मन की एकाग्रता का संरक्षण न होने से प्रमाद होता है और उसके कारण पाप-कर्म होते हैं।
(२) वचन-दु:प्रणिधान : सामायिक के समय प्रमादजनक वचन बोलने से निष्पन्न होते पापकर्म । .. (३) काय-दुःप्रणिधान : सामायिक के समय काया द्वारा निष्पन्न पापकर्म ।
(४) अनादर : प्रमाद आदि के कारण सामायिक के प्रति आदरभाव का अभाव । इससे सामायिक अस्त-व्यस्त रूप से होता है। वह यथोचित ढंग से न किया जाय । उचित रूप से न लिया जाये। उचित रूप से न किया जाय । उचित समय के पहले ही अलग किया जाय।
(५) स्मृत्यर्नुस्थापन : इसका अर्थ है स्मृतिदोष निर्मित पापकर्म । सामायिक के समय सामायिक कर्म का स्मृतिभ्रंश अथवा सामायिक किया है या नहीं उसका विस्मरण । सामायिक अलग-अलग करने का समय हुआ है या नहीं उसका भी विस्मरण । ऐसे प्रकार के स्मृतिदोष से निष्पन्न पापकर्म । .
पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण में उच्चारे जाते बड़े अतिचारों में सामायिक के निम्न प्रकार के अतिचार बोले जाते हैं।
नवमें सामायिक व्रते पाँच अतिचार तिविहे दुप्पणिहाणेण । सामायिक के कारण मन ने अचिंतन किया, सावद्य वचन बोले, शरीर को बिना कारण हिलाया, के समय सामायिक न लिया, सामायिक लेकर खुले मुख बोले, नींद आई, वात, विकथा, घर की चिंता की, बीज, दीवा, का त्याग किया, कण, कपास, मिट्टी, नमक, खडी धावडी (वृक्ष), अरणेहो पाषाण प्रमुख, जल, नील, पुष्प, स्वेद, हरिणकाया, बींचकाय इत्यादि को अस्पृश्य किया, तिर्यंच का निरंतर परंपर संघट्ट हुआ, मुँहपत्तियाँ छोड दीं, अपूर्ण
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