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समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक
है । सामायिक का आधार इस प्रतिज्ञासूत्र पर है I
तीर्थंकर परमात्मा पंचमुष्टि से लौचन कर स्वयं दीक्षित होते हैं तब सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा लेते हैं। भगवान महावीर स्वामीने सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा ली उस समय उन्होंने सिद्ध भगवंतों को वंदन कर, 'करेमि सामाइयं सव्वं मे अकरणिज्जं पाव कम्मं' इसी प्रकार उच्चारण कर प्रतिज्ञा ली थी। साधु भगवंत जब प्रतिज्ञा लेते हैं तब 'करेमि भगवंत सामाइयं' की प्रतिज्ञा त्रिविध त्रिविध अर्थात् नवकोटि पूर्वक लेते हैं । गृहस्थलोग जब दो घड़ी का सामायिक करते हैं तब 'करेमि भन्ते' सूत्रोच्चार कर वे कोटिपूर्वक पच्चक्खाण लेते हैं । इसलिए साधु भगवंतों के 'करेमि भन्ते' और गृहस्थों के 'करेमि भन्ते' में कुछ शब्द भिन्न दिखाई देते ये शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण, अर्थसभर और सूचक हैं। साधु भगवंत जब दीक्षा लेते हैं तब 'करेमि भन्ते' बोलते हैं। वे यावज्जीवन सामायिक का स्वीकार करते हैं। गृहस्थों का सामायिक नियमानुसार अर्थात् दो घड़ी का होता है। अतः साधु भगवंतों के लिए सर्व प्रकार के सावध योग के पच्चक्खाण ग्रहण करना आवश्यक है। इसलिए उनके 'करेमि भन्ते' में 'सव्वं' और ‘जावजीवायं' शब्द समाविष्ट होते हैं। गृहस्थों के जीवन में आरंभ-समारंभ चलता रहता है। इसलिए वे दो घड़ी के सावद्ययोग के पच्चक्खाणं अपनाते हैं। साधु भगवंतों को गृहस्थजीवन का, अर्थोपार्जन का या अन्य सांसारिक उत्तरदायित्व नहीं होता । सर्व सांसारिक संबंधों से वे निवृत्त हो गये हैं । इसलिए वे तीन करण (करना, कराना, अनुमोदन देना) और तीन योगों से ( मन, वचन, काया से) पच्चक्खाण ग्रहण करते हैं । गृहस्थों को उत्तरदायित्व होता है । अर्थोपार्जन और सांसारिक कार्यों में ममता का भाव होता है। इसलिए वे दो करण और तीन योगों से पच्चक्खाण ग्रहण करते हैं। मन, वचन और काया से सावध योग का अनुमोदन नहीं करूंगा ऐसा पच्चक्खाण गृहस्थों के लिए आवश्यक नहीं है। वे उसे लेने को समर्थ या अधिकृत नहीं हैं। अगर वे उसे ग्रहण करें तो भी भंग होने की संपूर्ण संभावना है। इसलिए साधुओं के 'करेमि भन्ते' में 'तिविह तिविहेण' और 'करतंपि अन्नं' न समणुज्जाणेमि पाठ आता है ।
साधुओं के लिए यावज्जीवन समभाव में अनासक्ति भाव से, साक्षीभाव से रहना आवश्यक है। गृहस्थों को दो घड़ी के लिए ही उसकी साधना करनी पड़ती है । इसलिए सामायिक के बीच यदि गृहस्थ खाये-पीये तो भी उसके लिए वह सावद्य योग है । साधु भगवंत यदि आहारादि करे, शौचादि क्रियाएँ करे तो भी उनके लिए वे सावद्य क्रिया नहीं है । साधु भगवंतों के लिए तीन करण और तीन योगों से पापरूप कार्य न करने के पच्चक्खाण होते हैं । उनके नव भांगा (प्रकार) इस प्रकार हैं (१) मन से नहीं करूँगा । (२) वचन से नहीं करूँगा । (३) काया से नहीं करूँगा । (४) मन से नही कराऊँगा । (५) वचन से नहीं कराऊँगा ।
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