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________________ • १८४ 'सागार धर्मामृत' में कहा है : समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि सामायिकं सुदुःसाध्यमप्यभ्यासेन साध्यत्ते । निम्नी करोति वा बिन्दुः किं नाश्मानं मुहुः पतन ॥ ( अत्यन्त दुःसाध्य होते हुए भी सामायिक अभ्यास से 'नित्य प्रवृत्ति से' साध्य होता है । सतत जल बिन्दु गिरने से क्या पत्थर ( घिसकर ) नीचा नहीं हो जाता ? ) गृहस्थों को क्रिया - विधिपूर्वक करने का द्रव्य सामायिक दो घड़ी का होता है। गृहस्थों गुरु भगवंत को साक्षी रखकर (अथवा स्थापनाचार्य के सम्मुख होकर) प्रतिदिन आवश्यक क्रिया के रूप में उसका अवश्याचरण करना अनिवार्य है । गृहस्थों को अपने गृहजीवन की मर्यादाए होती हैं। इसलिए उनके लिए इस द्रव्य सामायिक का विधान किया गया है। लेकिन द्रव्य सामायिक का आदर्श वही होता है कि वह भाव सामायिक में परिणत हो जाय । गृहस्थ चाहे वह पुरुष हो या स्त्री जब वे द्रव्य सामायिक करते हैं तब यदि पुरुषों का मन अत्यंजवास में अपना दिया हुआ ऋण वसूल करने में या स्त्री का मन रसोईघर में भटकता हो तो वह द्रव्य सामायिक सिर्फ़ द्रव्य सामायिक ही रहता है। उसमें भावलीनता का अभाव होने से वह अधिक फल नहीं देता । पुणिया श्रावक गृहस्थ था । फिर भी उसका द्रव्य सामायिक ऐसा उत्तम भाव सामायिक बना रहता कि उसके सामायिक की प्रशंसा खुद भगवान महावीर के मुख से हुई है। सामायिक का समय 1 द्रव्य सामायिक दो घड़ी का होना चाहिए ऐसी प्राचीन परंपरा चली आती है । इस सामायिक के प्रारंभ में और अंत में अलग-अलग करने की विधि में कुछ परिवर्तन होता रहा है । फिर भी उसका प्रमुख ध्वनि और भाव तो समान ही रहा है । सामायिक के प्रारंभ और अलगता की क्रियाविधि में कुछ सूत्र बोलने पडते हैं । इन सूत्रों में नवकार मंत्र, पंचिदिअ, इरियावही, तस्सउत्तरी, अन्नत्थ, लोगस्स, करेमि भन्ते आदि सूत्र समान रहे हैं । अन्य कुछ सूत्रों में प्रभिन्नता से फर्क होता है। फिर भी उसका आशय समान रहा है । किसी भी क्रियाविधि में प्रारंभ में नवकार मंत्र के बाद इरियावही सूत्र पढ़ा जाता है। वह दोषक्षमापन का सूत्र है। जब तक इरियावही सूत्रों द्वारा, दोषों की क्षमापना द्वारा शुद्धि नहीं होती तब तक किसी भी धार्मिक क्रिया व विधि अधिक फल नहीं देती । इरियावही के साथ लोगस्स का काउसग्ग अवश्यरूप से जुड़ा हुआ होता है। इससे दर्शन विशुद्धि का लाभ होता है । सामायिक का महत्त्वपूर्ण सूत्र है 'करेमि भन्ते समाइयं' । सामायिक के लिए वह प्रतिज्ञासूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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