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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि यद्यपि सदाचार के उपर्युक्त विवेचन से ऐसा लगता है कि सदाचार का सम्बन्ध नैतिकता या साधना परक आचार से न होकर लोक व्यवहार (लोक-रूढि) या बाह्याचार के विधि निषेधों से अधिक है। जबकि जैन परम्परा के सम्यक् चारित्र का सम्बन्ध साधनात्मक एवं नैतिक जीवन से है। जैन धर्म लोक-व्यवहार की उपेक्षा नहीं करता है फिर भी उसकी अपनी मर्यादाएँ हैं :
(१) उसके अनुसार वही लोक-व्यवहार पालनीय है जिसके कारण सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र (गृहित व्रत, नियम आदि) में कोई दोष नहीं लगता हो । अत: निर्दोष लोकव्यवहार ही पालनीय है, सदोष नहीं।
(२) दूसरे यदि कोई आचार (बाह्याचार) नर्दोष है किन्तु लोक-व्यवहार के विरुद्ध है तो उसका आचरण नहीं करना चाहिये 'यदपि शुद्धं तदपि लोकविरुद्धं न समाचरेत्' किन्तु इसका विलोम सही नहीं है अर्थात सदोष आचार लोकमान्य होने पर भी आचरणीय नहीं है।
जैन, बौद्ध और गीता में सम्यक् चारित्र, शील एवं सदाचार का तात्पर्य राग-द्वेष, तृष्णा या आसक्ति का उच्छेद रहा है। प्राचीन साहित्य में इन्हें ग्रन्धि अथवा हृदय ग्रन्थि कहा गया है। इस गाँठ को खोलना ही साधना है, चारित्र है या शील है। सच्चा निर्ग्रन्थ वही है जो इस ग्रन्थि का मोचन कर देता है। आचार के समग्र विधि-निषेध इसी के लिये है।
सम्यक् चारित्र या शील का अर्थ काम, क्रोध, लोभ, छल - कपट आदि अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रहना है। तीनों ही आचार - दर्शन साधकों को इनसे बचने का निर्देश देते हैं। जैन परम्परा के अनुसार व्यक्ति जितना क्रोध, मान, माया (कपट) और लोभ की वृत्तियों का शमन एवं विलयन करेगा उतना ही वह साधना या सच्चरित्रता के क्षेत्र में आगे बढ़ेगा। गीता कहती है जब व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अहिंसा, क्षमा आदि देवी सद्गुणों का सम्पादन करेगा तो वह अपने को परमात्मा के निकट पायेगा। सदगुणों का सम्पादन और दुर्गुणों से बचाव' एक ऐसा तत्त्व है, जहाँ न केवल सभी भारतीय अपितु अधिकांश पाश्चात्य आचारदर्शन भी समस्वर हो उठते हैं। चाहे इनके विस्तार - क्षेत्र एवं प्राथमिकता के प्रश्न को लेकर उनमें मतभेद हो। उनमे विवाद इस बात पर नहीं है कि कौन सदगुण है और कौन दुर्गुण है, अपितु विवाद इस बात पर है कि किस सदर्गुण का किस सीमा तक पालन किया जावे और दो सदगुणों के पालन में विरोध उपस्थित होने पर किसे प्राथमिकता दी जावे।
१. हिन्दू धर्मकोश पृ०.७४-७५
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