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________________ सूझ रही है क्योंकि मानवीय चेतना के तीनों पक्ष ज्ञान, भाव और संकल्प का इसके द्वारा विकास माना गया है। भावानात्मक पक्ष के विकास के लिये सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के लिये ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष के लिये सम्यक् चारित्र का होना आवश्यक है। इस अध्याय में इन तीनों का विस्तृत विवेचन समत्व की सिद्धि के साधनों के रूप में किया गया है । चतुर्थ अध्याय में समत्वयोग प्राप्त करने की क्रिया सामायिक तथा प्रतिक्रमण का विस्तृत विवेचन दिया गया है । सभी आत्मा समान हैं यही सामायिक है। उपरोक्त अध्याय में सामायिक के विभिन्न अर्थ, उसकी व्याख्या, लक्षण, प्रकार, महत्त्व तथा सामायिक व वैदिक संध्या का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। सामायिक कैसे प्राप्त होती है तथा इससे समभाव कैसे प्राप्त होता है इसका विस्तृत विवेचन किया गया है। पंचम अध्याय में अनेकान्तवाद का विवेचन किया गया है। जैन धर्म का मूल अहिंसा है और अहिंसा का आधार है अनेकान्त दृष्टि । अनेकान्तवाद भारतीय दर्शनों की एक संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है। विचारों की संकीर्णता या असहिष्णुता ईर्ष्या-द्वेष की जननी है । इस असहिष्णुता को मैं अन्धकार से कम नहीं समझती । आज समाज में असमानता और अशान्ति है, इसका मुख्य कारण यही विचारों की संकीर्णता है । इस संकीर्णता को अनेकान्तवाद मिटता है । अनेकान्तवाद का मानना है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । कोई दर्शन किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है तो दूसरा दर्शन किसी दूसरे धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है। दोनों की पृष्ठभूमि में एक ही द्रव्य है, किन्तु एकांगी प्रतिपादन के कारण वे विरोधी से प्रतीत होते हैं। उनमें प्रतीत होने वाले विरोध का शमन अनेकान्त दृष्टि से किया जा सकता है। अनेकान्त का अर्थ यही है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी हैं और सब दृष्टियाँ किसी बड़े सत्य अनेकांत में समाहित हो जाती हैं । अनेकान्त ही एक ऐसी द्दष्टि है जिसके आधार पर समत्व, समन्वय व शान्ति स्थापित की जा सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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