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रूपरेखा प्रथम अध्याय में समत्व का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप तथा महत्त्व की चर्चा की, है। समत्व के स्वरूप से सम्बन्धित जैन, बौद्ध और भगवद्गीता की धाराओं का अध्ययन करने के साथ आधुनिक युग में इस विचारधारा से सम्बन्धित गाँधी, प्लेटो तथा कार्ल मार्क्स के विचारों का अध्ययन भी इस अध्याय में दिया गया है।
द्वितीय अध्याय में समत्व के आधार शान्तरस तथा भावनाओं का विवेचन किया गया है। आध्यात्मिक शान्ति मानव हृदय के लिए सारभूत है। जीवन का कोई भी क्षण चाहे व सुख का हो अथवा दु:ख का, आध्यात्मिक शान्ति की इच्छा किये बगैर नहीं गुजरता । शान्तरस की उत्पत्ति आत्मा की स्वतन्त्रता से होती है । इसका सम्बन्ध इच्छाओं के विनाश से होता है । ज्योंज्यों राग-द्वेष की आकुलता कम होती जाती है और ज्ञान का आलोक फैलता जाता है, त्यों त्यों अन्त:करण में शान्ति का विकास होता है । शान्त रस ही समत्व का आधार है। इस रस के विषय में विलक्षण बात यह है कि मनुष्य में इस भाव को अभ्यास के द्वारा पकड़ने की क्षमता है तथा जिसे यह प्राप्त हो जाता है उसे आत्मिक शान्ति प्राप्त हो जाती है ।
शान्त रस प्राप्त कैसे किया जाय ? इसको प्राप्त करने का साधन क्या है तथा शान्त रस को प्राप्त करने का साधन भावनाओं का भी विस्तृत अध्ययन इस अध्याय में किया है।
तृतीय अध्याय में समत्व प्राप्त करने का साधन-रत्नत्रय (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) का विवेचन किया गया है । जैनदर्शन मोक्षप्राप्ति के लिए त्रिविध साधना मार्ग का विधान प्रस्तुत करता है । सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र मोक्ष का मार्ग है। बौद्ध दर्शन में त्रिविध साधना मार्ग के रूप में शील, समाधि
और प्रज्ञा का विधान है। भगवद्गीता में भी ज्ञान, कर्म और भक्ति के रूप में त्रिविध साधनामार्ग का उल्लेख है। पाश्चात्य दर्शन भी चिन्तन के तीन आदेशों को मानता है। इस त्रिविध साधना के विधान के पीछे आचार्यों की मनोवैज्ञानिक
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