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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि
तिर्यंच गति में भी जीव को भूख, प्यास, ठंड, गर्मी और प्रहार आदि बहुतबहुत दुःख भोगने पड़ते हैं। स्वयं के उपयोग में आवें ऐसे पशु पक्षियों को लोग बन्धन में डालते हैं, उसे निर्दयता पूर्वक काम करवाते हैं, स्वयं भी उन पर चढ़ बैठते हैं, गाड़ी आदि में जोतकर दौड़ाते हैं और दीन बन कर उन जीवों को नाचना पड़ता है। ठंडीगर्मी, भूखप्यास सहने पड़ते हैं, वधशाला में कटना पड़ता है। ऐसे ऐसे तो अनेक दुःख जीव को तिर्यंच गति में भोगना पड़े, यह शक्य है ।
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मनुष्य गति में भी जीव को दरिद्रता, दुर्भाग्य, दासत्व, रोग, शोक, वियोग आदि से उत्पन्न हुए बहुत से दुःखों को भोगना पड़े, यह शक्य है।
शेष रही हुई देवगति में भी जीव को ईर्ष्या, विषाद और पराधीनता आदि से जनित अनेकविध दुःख भोगने का प्रसंग उपस्थित हो जाया करते हैं। इस प्रकार देखने पर चारों गतियों में से एक भी गति ऐसी नहीं जिसमें दुःख नहीं ही हो। ऐसा समझपूर्वक विचार पैदा होन पर, जीव में संसार से भय पाने का भाव प्रकट होता है और यह भय मोक्ष को पाने के भाव को पैदा किये बिना तो रहता ही नहीं । इस तरह जीव संसार से भयभीत हो जाय, यह संवेग है ।
संवेग का ऐसा भाव सही रूप से तो सम्यक्त्व को प्राप्त आत्माओं में ही प्रकट हो सकता है। इसलिए हम देख चुके हैं कि आचार्यों ने जैसे प्रशम को सम्यक्त्व के एक लिंग के रूप में वर्णित किया है वैसे संवेग को भी सम्यक्त्व के एक लिंग के रूप में बताया है। यह संवेग ऐसा है कि - इस संवेग के भाव को बहुत - बहुत विकसित करके जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला भी बन जाता है । और सम्यक्त्व को प्राप्त जीव, संवेग के इस भाव में रमता रमता अपने चरित्र मोहनीय कर्मों का क्षयोपशमादि भी सुलभता से कर सकता है।
(iii) निर्वेद :
सम्यक्त्व का तीसरा लिंग निर्वेद है। निर्वेद शब्द का अर्थ है उदासीनता, वैराग्य, अनासाक्ति । निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के विकास का आवश्यक अंग है ।
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कोई जीव कर्म पर काबू पा सके और सदा के लिए सुखी हो सके, यह शक्य नहीं होने से भगवान ने कर्म से छूटने का उपाय बताया है। जो कर्म से छूटता है वही सुखी हो सकता है, बाकी तो, संसार में जीव की स्थिति कर्माधीन रहने की ही है। ऐसा जो समझे उसे उस कर्म की, सत्ता से ही चलने वाले इस संसार पर ममत्व भाव नहीं रहता है । परन्तु संसार पर ममत्व भाव न रहने मात्र क्या कर्मसत्ता का प्रतीकार हो सकता है ? नहीं। कर्मसत्ता से छूटने पर ही ऐसा हो सकता है। इस प्रकार का विचार कर सकने वाले जीव को संसार में रहना पड़े, तो वह किस प्रकार रहे ? सुख पूर्वक ही रहे न ? रहना अच्छा न लगने पर भी रहना पड़े तो क्या दुःख नहीं होता ? इसी तरह संसार
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