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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
। १३५ (४) अमूढदृष्टि :
सम्यक्त्व का चतुर्थ आचार है अमूढदृष्टि - इसका तात्पर्य है, जिसकी सम्यग्दृष्टि किसी भी अवस्था में मूढ़ नहीं बने, आपदग्रस्त अवस्था में भी किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं बने।
वीतरागदेव के आध्यात्मिक रस को लेकर भव्य प्राणी चल रहे हैं तो कभी भी उनके प्रकाशमय जीवन में अज्ञान तथा अंधकार का प्रवेश नहीं होता। (५) उवगुहन :
पाँचवा आचार है उवगुहन जिसे उपबृंहण भी कहा जा सकता है। उपबृंहण अर्थात् गुणवान पुरुषों के गुणों का प्रगटीकरण करना । गुणी पुरुषों के विद्यमान गुणों का कथन करने से सद्गुणों की अभिवृद्धि होती है। व्यक्ति में जब तक अपूर्ण अवस्था रहती है, तब तक गुण व अवगुण न्यूनाधिक मात्रा में यथास्थान प्राय: पाये जाते हैं। उनके गुणों को सन्मुख रखकर कथन करने पर जिस व्यक्ति के गुणों का कथन किया जा रहा है, उसमें अपने गुणों को अधिक बढ़ाने की स्फुरणा पैदा होती है,
और वह उसी कार्य में सतत प्रयास करने लगता है, एवं स्वयं के आइने में स्वयं को देखने लगता है, जिससे स्वयं के दुर्गुण उससे प्राय: अविदित नहीं रह पाते और वह उन दुर्गुणों को स्वयं देखदेख करके खिन्नता का अनुभव करता है, और अपने आपको गुणमय बनाने का भरसक प्रयन्त करता है। यह सम्यग्दृष्टि का पाँचवाँ आचार गुणों को बढ़ाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । जो यह सोचता है कि मैं अपने जीवन में गुण ही गुण देखना चाहता हूँ तो वह तब ही देख पाएगा जब कि वह सभी के सद्गुण देखता रहे और उन सद्गुणों को बढ़ाने के लिए कथन करता रहे। जिससे सम्यक्त्व का यह पाँचवाँ आचार भलीभांति जीवन में प्रगट हो जाय। सदा गुण का ही चिंतन करने से दुर्गुण स्वत: क्षीण होते हुए चले जाएँगे एवं एक न एक दिन अपने जीवन को वह गुणों की असीम अभिव्यक्ति से भर लेगा। ऐसा करने से सद्गुण का वायुमंडल पैदा होगा एवं क्लेश कलह समाप्त होंगे, राग-द्वेष की वृत्ति मंद होगी और मोक्ष के रास्ते पर अग्रसर होने का प्रसंग
आएगा। इस प्रकार इस पाँचवें आचार को श्रावक अपने जीवन में स्थान दें तो अनेक भव्यों का परिवर्तन होते हुए व्यक्ति, परिवार एवं समाज में भव्य वातावरण बन सकेगा। (६) स्थिरीकरण :
अपने जीवन में यह समीक्षण करना है कि हम वीतराग वाणी में स्थिर हैं या अस्थिर ? यदि हम सुदृढ़ रूप से स्थिर हैं तो हम अन्य को भी स्थिर कर सकते हैं। जो स्वयं को संभालने में सक्षम है, वही दूसरों को संभाल सकता है। यह संसार वैतरणी नदी है और इसका तट सम्यक्त्व की आचारभूमि है। जो मनुष्य स्वयं तट पर सुरक्षित अवस्था में खड़ा रहने में समर्थ बन चुका है, वही,
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