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समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि साधना नहीं कहते हैं, क्योंकि वह आत्मकेन्द्रित नहीं है। भौतिक सुखों और उपलब्धियों के पीछे भागने वाला साधक चमत्कर और प्रलोभन के पीछे किसी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है। जैनसाधना में यह माना गया है कि साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के लिए निष्कांक्षित अथवा निष्कामभाव से युक्त होना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में निष्कांक्षता का अर्थ - ‘एकान्तिक मान्यताओं से दूर रहना' किया है। इस आधार पर अनाग्रह युक्त दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए आवश्यक है। ___सुलसा का दृष्टान्त आप जानते है ? अम्बड़ ने तीर्थंकर का रूप बनाया, बारह पर्षदा सामने बैठाई, देशना देना शुरू किया। सब गये। वे सब कहते हैं कि तीर्थंकर आये। कहने वाले ने सुलसा को भी कहा कि तीर्थंकर आये हैं। सुलसा ने पूछा कि - क्या भगवान् महावीर पधारे ? जवाब मिला कि - नहीं, ये तो पच्चीसवें तीर्थंकर पधारे हैं। सुलसा कहती है कि - यह नहीं हो सकता। उसने कहा - देखना हो तो चलो । सुलसा ने कहा - नहीं, सर्वज्ञ का अनुयायी ऐसावैसा नहीं देखता। (३) निर्विचिकित्सा : ____ जहाँ भी मतभेद या विचार भेदका प्रसंग उपस्थित हो वहाँ अपने आप कोई निर्णय न करके केवल मतिमन्दता या अस्थिर बुद्धि के कारण यह सोचना कि यह बात भी ठीक है और वह बात भी ठीक हो सकती है'। बुद्धि की यह अस्थिरता साधक को किसी एक तत्त्व पर कभी स्थिर नहीं रहने देती, इसीलिए इसे विचिकित्सातिचार कहा गया है।
ज्ञानियों द्वारा कहे गये अनुष्ठानों के सेवन का फल मिलेगा या नहीं, ऐसी शंका करना 'विचिकित्सा' दोष है। ऐसी शंका न करना निर्विचिकित्सा' है। ज्ञानियों द्वारा कहे अनुष्ठानों का फल न मिले, यह कैसे हो सकता है ?
साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचरण का प्रारम्भ करे कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि नैतिक आचरण किया जावेगा तो निश्चित रूप से उसका फल होगा ही। क्रिया के फल के प्रति सन्देह न होना ही निर्विचिकित्सा है।
- आचार्य समन्त भद्र का कथन है, शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसकी पवित्रता तो सम्यग् ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप रत्नत्रय के सदाचरण से ही है अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उसके गुणों से प्रेम करना निर्विचिकित्सा है।
१. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २३ १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, २६
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