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जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय
११७ मोक्ष मार्ग का भी विधान है। जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में किया है और इस लिए परवर्ती साहित्य में इसी त्रिविध साधनामार्ग का विधान मिलता है। उत्तराध्ययन में भी ज्ञान, दर्शन
और चारित्र के रूप में त्रिविध साधना - पथ का विधान है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार' एवं 'नियमसार' में, आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र' में त्रिविध साधना-पथ का विधान किया है।
यह प्रश्न उठ सकता है कि त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों किया गम है ? वस्तुत: त्रिविध साधना-मार्ग के विधान में पूर्ववर्ती ऋषियों एवं आचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष माने गये हैं - ज्ञान, भाव और संकल्प । नैतिक जीवन का साध्य चेतना के इन तीनों पक्षों का विकास माना गया है। अत: यह आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधना-पथ का विधान किया जाय । चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यक बनाने के लिए एवं उसके सही विकास के लिए सम्यग्दर्शन याश्रद्धा की साधना का विधान किया गया। इसी प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष के लिए ज्ञान का और संकल्पात्मक पक्ष के लिए सम्यक् चारित्र का विधान है। इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध साधना - पथ के विधान के पीछे एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है।
बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधना मार्ग का विधान है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में इसी का विधान अधिक है। वैसे बुद्ध ने अष्टांग मार्ग का भी प्रतिपादन किया है। लेकिन यह अष्टांग-मार्ग भी त्रिविध साधना मार्ग में ही अन्तर्भूत है।
भगवद् गीता में भी ज्ञान, कर्म और भक्ति के रूप में त्रिविध साधना - मार्ग का उल्लेख है। इन्हें ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के नाम से भी अभिहित किया गया है । यद्यपि भगवद् गीता में ध्यानयोग का भी उल्लेख है।
पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं - १ स्वयं को जानो (Know Thyself), २. स्वयं को स्वीकार करो (Accept Thyself) और ३. स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself) 119
पाश्चात्य चिन्तन के तीन नैतिक आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के समकक्ष ही है । आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्मनिर्माण में चारित्र का तत्त्व स्वीकृत ही है।
३. साइकोलोजी एण्ड मारल्स. पृ. १८०.
१. तत्त्वार्थसूत्र १११ २. उत्तराध्ययन २८२
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