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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि फिर पापनाशिनी माता की पावनप्रभा उस महिला के स्पर्श से कैसे मलिन हो जाएगी ?" कहने वाली महिला को तुरन्त अपनी भूल समझ में आ गई । उसने माता शारदामणि से अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी और उनके उदार विचार अपना लिए । मध्यस्थ व्यक्ति को भी अमुक जाति-धर्म-सम्प्रदाय आदि का होने से किसी को हीन, नीच एवं पापी मानना उचित नहीं है ।
भगवान् महावीर ने एक जीवनसूत्र दिया कि घृणा या द्वेष पाप से करो पापी से नहीं । आज का बुरा, पतित, पापी और दुष्ट, कल भला बन सकता है। इसके अगणित उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं । बंकचूल, अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र चोर, रोहिणेय चोर आदि जैन इतिहास के तथा अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि बौद्ध इतिहास के तथा अजामिल, वाल्मीकि, बिल्वमंगल आदि वैदिक इतिहास के उदाहरण प्रसिद्ध हैं । अगर इनके दुश्चरित्र को देखकर इनसे घृणा की जाती, द्वेष और दुर्भाव रखा जाता तो इनके जीवन का आश्चर्यजनक सुधार या परिवर्तन न होता । ये लोग अपने जीवन की पूर्वभूमिका में जितने निकृष्ट, भयंकर
और निन्दनीय थे, उत्तरभूमिका में उतने ही अभिनन्दनीय और वन्दनीय हुए । गन्दगी लगा हआ बर्तन भी जब माँज-धोकर शुद्ध किया जा सकता है तब बुरा व्यक्ति भी सुधारने पर श्रेष्ठ और सम्माननीय क्यों नहीं बन सकता? ऐसी दशा में किसी व्यक्ति के प्रति घृणा और द्वेष रखना क्यों कर उचित हो सकता है ? मनुष्य की आत्मा में परमात्मा की छाया है, वह मूलतः पवित्र है। उसका सर्जन जिन पुण्यतत्त्वों के कारण हुआ है, वे उच्चतर हैं । इसलिए समत्वयोगी को माध्यस्थ्य-भाव को जीवन में प्रतिष्ठित करने के लिए मनुष्य के अन्तरंग विशुद्ध आत्मतत्त्व की ओर ध्यान देना चाहिए उसके प्रति आस्था रखनी चाहिए ।
दुष्टता का प्रतिरोध दुष्टता से ही हो, यह समता सिद्धान्त के विरुद्ध है। महात्मा गाँधी ने अहिंसा और समता के सिद्धान्त के शस्त्र प्रबल प्रतिपक्षियों पर चलाकर उन्हें परास्त करके अहिंसक युद्ध का अनुपम उदाहरण मानवजाति के समक्ष प्रस्तुत करके सारे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया है । यही शस्त्र मध्यस्थ-भाव का धनी व्यक्ति कुमार्गगामियों, प्रतिपक्षियों और दुश्चरित्र व्यक्तियों के प्रति चला सकता है।
परन्तु एक वर्ग ऐसा भी है, जो इससे भी उग्र, अतिदृष्ट, अतिपापी, दुःसाहसी और भौतिक शक्ति का धनी होता है । वह माध्यस्थ्य भावनाशील साधक
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