________________
समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ
१११ को माध्यस्थ्य गुण कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि चाहे किसी व्यक्ति के निमित्त से राग अथवा द्वेष का कारण समुपस्थित हो, चाहे किसी वस्तु के निमित्त से हो, दोनों ही अवस्थाओं में समभाव की देहली पर स्थित रहने में ही माध्यस्थ्य भावना की सार्थकता है।
एक बार किसी उपद्रवी ने पत्थर फेंककर मारा, वह नीग्रोनेता डा. मार्टिन लूथर किंग के माथे पर लगा। माथा फट गया। रक्त बहने लगा। घाव धोकर थोड़ी दवा लगाई और आफिस में जाकर काम करने लगे। न किसी को भला-बुरा कहा, न किसी के प्रति रोष किया। एक पत्रकार ने उनसे पूछा - 'श्रीमानजी ! आप जानते थे कि उपद्रवी हिंसक रूप धारण कर सकते हैं, फिर आप उधर गए ही क्यों ? क्या आपको संकट से ही प्यार है ?'
नीग्रोनेता ने कहा - "मैं चाहता हूँ कि लोगों का सारा द्वेष मुझ से टकराए और मेरा मन समता के अमृत में डूबकी लगाता रहे, मैं माध्यस्थ्य-भावना में टिका रहूँ । सारा संसार निर्मल हो जाए । इसलिए कठिनाइयों का सामना करने में मुझे कोई रंज नहीं है ।"
यह है, माध्यस्थ्य की भूमिका का निर्वाह ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी शारदामणि कालीमाता की प्रतिमा का शृंगार--अलंकार अत्यन्त भक्तिपूर्वक किया करती थीं । इस कार्य में अन्य महिलाएँ भी प्रसन्नतापूर्वक सहायता करती थीं। एक महिला ऐसी थी, जो तथाकथित समाज में कुल और शील की दृष्टि से नीची मानी जाती थी। अतः एक कुलीन महिला ने एक दिन माता शारदामणि से कहा -- "अमुक स्त्री नीच कुल की एवं चारित्रभ्रष्ट है, उसे आप काली मां की प्रतिमा छूने न दिया करें । उसे मन्दिर के बाहर ही रखा करें ।"
___ शारदामणि यह सब जानती थी फिर भी उन्होंने कभी उस महिला को अलंकार विधि से रोका नहीं । सम्भ्रांत महिलाओं की तरह ही आदर देकर उसे वे प्रेमपूर्वक भाग लेने देती थीं । इसलिए शारदामणि ने उस शिकायत करने वाली महिला से कहा - "बेटी ! गंगा में सभी स्नान करते हैं, उनमें कई मैले और गंदे भी होते हैं, पर इससे न तो गंगा की पवित्रता नष्ट होती है, न ही महिमा घटती है। जो गिरता है, वह अपने ही पापों से गिरता है। स्पर्श किसी को गिरा नहीं सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org