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समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ
१०९ मारे-पीटे, प्राणहानि कर दे या अन्य हानि पहुँचाए, वह भी धर्मविरोधी बनकर उदण्डता धारण कर ले । इसलिए मध्यस्थ साधक मौनालम्बन ही श्रेयस्कर समझता है। मध्यस्थ व्यक्ति में किसी बात या व्यक्ति के राग-द्वेष-युक्त पक्षपात या झूठा पूर्वाग्रह नहीं होता, इसलिए वह पक्षपात, पूर्वाग्रह, दुराग्रह आदि से ऊपर उठकर समभावपूर्वक प्रत्येक वस्तु के यथार्थ स्वरूप का विचार कर सकता है। कहा भी
उवसमसारवियारो वाहिज्जइ नेव रागदोसेहिं ।
मज्झत्थो हियकामी असग्गहं सव्वहा चयइ ॥ जिसके क्रोधादि या रागद्वेषमोहादि विकार उपशान्त हो गये हैं, वह सर्वहितैषी मध्यस्थसाधक रागद्वेषों के प्रवाह में नहीं बहता, और असदाग्रह (दुराग्रह या पूर्वाग्रह) को सर्वथा छोड़ देता है । ऐसे ही मध्यस्थ साधक के भावों को माध्यस्थ्य कहा जाता है।
समतायोगी साधक को बहुत-सी बार दुर्जन, दुष्ट, विरोधी या द्वेषी आदमी या प्रतिकूल तत्त्व भी मिल जाते हैं । उस समय उनके प्रति माध्यस्थ्य भावना उसे रखनी चाहिए । न तो ऐसे व्यक्तियों के प्रति राग, मोह या आसक्ति रखनी चाहिए
और न ही ऐसे व्यक्तियों के प्रति द्वेष, रोष, घृणा. या वैर-विरोध मन में आने देना चाहिए। अष्टक (१६)में माध्यस्थ्य भाव की सार्थकता बताते हुए कहा है -
स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तरऽऽत्मना ।
कुतर्ककर्करक्षेपैस्त्यज्यतां बालचापलम् ॥ मध्यस्थ व्यक्ति को अपनी अन्तरात्मा से विरोधी या प्रतिकूल तत्त्वों अथवा व्यक्तियों को कोसना या उपालम्भ देना-छोडकर अनुपालम्भ (समभावी) स्थिति में रहना चाहिए । ऐसे लोगों के प्रति कुतर्को के कंकर फेंकने की बालचेष्टाएँ भी छोड़ देनी चाहिए।
माध्यस्थ्य-भावना का हृदय यही है कि समभावी साधक को यही मानकर चलना चाहिए कि सभी प्राणी अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार शुभाशुभ संस्कारों के चक्कर में हैं । जब तक उनके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं मोहनीय कर्मों का क्षय या क्षयोपशम नहीं होता, भवस्थिति का परिपाक नहीं होता है, तब
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