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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि 'तत्त्वार्थराजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि' में माध्यस्थ्य का लक्षण इस प्रकार दिया है -
'रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम्' 'किसी के प्रति राग-द्वेष-पूर्वक पक्षपात न करना माध्यस्थ्य भाव है।"
जो व्यक्ति अपने द्वारा मनाये जाने पर भी विपरीत भावना को नहीं छोड़ते, जानबूझकर विरोध करते रहते हैं, टेढ़े-टेढ़े रहते हैं, बदनाम करने की चेष्टा करते हैं, अपने प्रति दुर्भावना, द्वेष, वैर, निन्दा, घृणा आदि करते रहते हैं, उनके प्रति रागद्वेषरहित मध्यस्थ दृष्टि रखना माध्यस्थ्य-भावना है। इसीलिए व्यवहारसूत्र की टीका में मध्यस्थ का अर्थ किया है -
"मध्ये राग-द्वेषयोरन्तराले तिष्टतीति मध्यस्थः सर्वत्रारागद्विष्टे ।" . जो राग और द्वेष के मध्य में रहता है, वह मध्यस्थ है, यानी वह सर्वत्र राग और द्वेष से अलिप्त रहता है । इस प्रकार के मध्यस्थ के भाव को माध्यस्थ कहते हैं । आवश्यक-सूत्र में समस्त प्राणियों पर समचित्त को मध्यस्थ कहा है।' इसका स्पष्टीकरण करते हुए एक आचार्य कहते हैं :
'अत्युत्कटराग-द्वेषाविकलतया समचेतसो मध्यस्थाः जो अत्यन्त उत्कट राग-द्वेष से रहित होकर समचित्त रहते हैं, वे मध्यस्थ
.
इसका निष्कर्ष यह है कि जो अपने से द्वेष रखते हैं, दोषदर्शी हैं, विरोधी हैं, असहमत है, उन पर भी द्वेष न रखना - उनके प्रति उपेक्षाभाव, उदासीनता या तटस्थता रखना माध्यस्थ्य-भावना है। .. एक आचार्य ने माध्यस्थ का अर्थ मौनशील-किया है । एक समभावी व्यक्ति है, वह किसी के दोषों को जानता है, फिर भी उन्हें ग्रहण नहीं करता, अपने दिमाग में प्रवेश नहीं करने देता क्योंकि वह जानता है कि अगर इसके दोषों का इस प्रकार से भण्डाफोड़ किया जाएगा तो संभव है, जनता उसके विरुद्ध होकर उसे
१. सर्वेषु सत्त्वेषु समचित्ते - प्रव. ६५ द्वार । २. मध्यस्थो मौनशीलः; स्वप्रतीतानपि कस्यापि दोषान्न गृह्णाति, तद्ग्ररहणाद्धि प्रभूतलोकविरोधितया धर्मक्षतिसम्भवात् ।
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