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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि देख-'अहह ! बेचारे इन दीन प्राणियों ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अशुभयोग से जो कर्म बाँधे थे, उन्हीं अशुभकर्मों के फलस्वरूप पैदा हुए दुःख ये भोग रहे हैं, ये शीघ्र ही दुःखों से छूटें,' इस प्रकार करुणाई होना, करुणा है, अनुकम्पा है।
एक आचार्य ने तो करुणा को जीव का स्वभाव यानी स्वाभाविक गुण बताया है। इसलिए जहाँ मानवता, सम्यक्त्व या समतासाधना होगी वहाँ करुणा का रहना अनिवार्य है, भले ही वह दया, अनुकम्पा, रक्षा, कृपा, सहानुभूति या सहदयता आदि में से किसी भी रूप में हो । ये सब एक या दूसरे प्रकार से करुणा के ही अंग या रूप हैं।
करुणा धर्मवृक्ष का मूल है। अगर करुणा नहीं है तो धर्मवृक्ष की जड़ ही उखड़ गई है। कहा भी है -
येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते । चित्ते जीवदया नास्ति, तेषां धर्मः कुतो भवेत् । मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम् ।
गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभिः ॥
वीतराग प्रभु के उपदेश से जिन श्रावकों क करुणामृत परिपूर्ण चित्त में प्राणीदया (करुणा) प्रादुर्भूत नहीं होती, उनके जावन में धर्म कहाँ से हो सकता है ?
प्राणीदया (करुणा) धर्म रूपी वृक्ष की जड़ है। वही व्रतों में प्रधान है, सम्पदाओं का धाम है और गुणों की निधि है। इसलिए विवेकी (सम्यग्दृष्टि सम्पन्न) व्यक्तियों को प्राणीदया(करुणा) अवश्य करनी चाहिए । करुणा का लक्षण अष्टक प्रकरण में इस प्रकार किया गया है -
दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् ।
उपकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ दीनों, पीड़ितों, भयभीतों तथा प्राणों (जीवन) की याचना करने वालों पर उपकारपरायण बुद्धि होना करुणाभाव कहलाता है । करुणा-भावना का सामान्य १. "करुणाए जीवसहावस्स कम्मणिदस्स विरोहादो"- -धवला २. पद्मनन्दि पंचविंशतिका, अ. ६/३७-३८ ३. आचार्य हरिभद्र, अष्टक प्रकरण
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