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समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि ३. करुणा-भावना आचार्य श्री अमितगति ने सामायिक पाठ के प्रथम श्लोक के तृतीय चरण में करुणाभावना का उल्लेख करते हुए कहा है -
'क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्' भगवन् ! मेरी आत्मा पीड़ित जीवों पर सदैव करुणाभावपरायण बनी रहे।
समत्वयोग की साधना में प्राणीमात्र के प्रति आत्मौपम्य-भावना की प्रधानता रहती है । संसार के सभी प्राणी जब अपनी आत्मा के तुल्य देखे जाते हैं तब स्वाभाविक है कि उनके दुःख, उनकी पीड़ा, व्यथा आदि के ध्यान दिया जाए, उनके दुःख दूर करने का यथाशक्य प्रयत्न किया जाए । ऐसी स्थिति में करुणाभाव भी आत्मौपम्य-दृष्टि के होने पर ही सम्पन्न हो सकता है । करुणा के बिना कोरी समता सूखी मृगतृष्णा ही सिद्ध होती है ।
जैसा कि महाभारत में कहा - प्राणः यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा ।
आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ॥' जिस प्रकार मुझे अपने प्राण अभीष्ट-प्रिय हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों को भी प्रिय हैं। इसी कारण सज्जन पुरुष आत्मौपम्य-भाव से प्राणि-मात्र पर करुणादया करते हैं।
यह है समत्वयोग और करुणा-भावना का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध । करुणाभावना समत्वयोग का विशेष रूप से परिपोषण करती है। वैसे तो समस्त प्राणियों के प्रति समतायोगी साधक की मैत्रीभावना रहती है, लेकिन विशेष रूप से जो दुःखित, पीड़ित, पददलित, व्यथित और शोषित व्यक्ति हैं, उनके प्रति सहानुभूति, करुणा, दया और सेवा की भावना जगती है, तब वह निःस्वार्थ एवं निष्कांक्षभाव से उन पीड़ितों को अपना अंग समझकर उनके दुःखनिवारण की मंगलभावना करता है और तदनुसार सात्त्विक प्रयत्न भी ।
संसार में सबको सर्वत्र सुख-शान्ति, अमनचैन, नीरोगता, धनसम्पन्नता,
१. महाभारत
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