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________________ समत्वयोग का आधार-शान्त रस तथा भावनाएँ पहुँच जाएगी।" हुएनसांग ने खड़े होकर शान्ति से कहा -- "मैं स्वयं जल में कूद पड़ता है। नौका का भार कम हो जाएगा । परन्तु इन ६५९७ अप्राप्य ग्रन्थों एवं बुद्ध की लगभग १५० ध्यानस्थ मूर्तियों को मत फेंको । मेरे मन में इस देह का इतना महत्त्व नहीं, जितना इन संस्कारवान वस्तुओं का है।" सहसा नालंदा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के हृदय में 'गुणिषु प्रमोद' के भावों का प्रकाश हुआ । एक वृद्ध चीनी गुणवान पर्यटक यदि इन संस्कारी वस्तुओं के लिए स्वयं का उत्सर्ग कर देगा तो भारतीय अतिथि-परम्परा का क्या होगा? एक तेजस्वी विद्यार्थी ने हाथ जोड़कर अभिवादन करके गुणवान हुएनसांग से कहा - "भदंत ! आप बहुत ही विद्वान एवं गुणवान हैं, भारतभूमि से आपने जो संस्कार निधि एकत्र की है वह तथा आप केवल नौका में भार के कारण डूब जाएँ यह हमारे लिए असह्य है।" इतना कहकर वह विद्यार्थी सिन्धु नदी की अथाह जलधारा में कूद पड़ा । उसके बाद शेष सभी विद्यार्थी जल में कूदकर लुप्त हो गए ।। नाविक तो इस अद्भुत समर्पण को फटी आँखों से देखते रह गये । जीवन-समर्पण के लिए गुणग्राही भारतीय लोगों की अनोखी पुण्य प्रक्रिया देखकर हुएनसांग की आँखों से भी अश्रुधारा बहने लगी । यह था-प्रमोदभावना का साकार रूप । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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