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समत्वयोग- एक समनवयदृष्टि
गुणथी भरेला गुणीजन देखी, हैयुं मारुं नृत्य करे; ए संतोनां चरणकमलमां मुज जीवननुं अर्ध्य रहे.
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केवल 'प्रमोद' का स्वरूप 'सर्वार्थसिद्धि' में इस प्रकार बताया हैं ' वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भावितरागः प्रमोदः । '
'मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा अन्तर में भावित भक्ति और अनुराग अभिव्यक्त होना प्रमोद है ।'
वास्तव में प्रमोदभावना का व्यापक रूप यही है कि गुणाधिक व्यक्तियों (फिर वे चाहे जिस जाति, कुल, देश, या सम्प्रदाय आदि के हों) के प्रति आदरभाव रखना; गुणीजनों की उन्नति, उत्कर्ष एवं विकास देखकर उनके प्रति ईर्ष्या, तेजोद्वेष, दोषदृष्टि न, रखते हुए उनके गुणों की प्रशंसा, अनुमोदना और गुणग्राहिता का भाव रखना, उन्हें देखकर प्रमुदित होना । जैसे बादलों की गर्जना और वर्षा के आगमन की संभावना देखकर मोर एकदम बोल उठते हैं उसी प्रकार गुणीजनों, धर्मात्मा पुरुषों, समाज के निष्ठावान एवं व्रतबद्ध सेवकों, राष्ट्र के सेवाभावी नायकों एवं सज्जनों आदि को देखते ही हृदय प्रेम से गद्गद् हो जाए, मन प्रसन्नता से उछल पड़े और उनकी तरक्की देखकर चित्त में आल्हाद उत्पन्न हो तो समझना चाहिए यह प्रमोदभावना है ।
किसी व्यक्ति में पद या प्रतिष्ठा के अनुरूप गुण न होते हुए भी उसे रिझाने, उसे अनुकूल बनाकर रूपये ऐंठने या अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए उसकी खुशामद या चापलूसी करने या उसकी अनुनय-विनय करने का नाम प्रमोदभावना नहीं है । गुणग्राहकता और चापलूसी में अन्तर है । गुणग्रहण जीवन का सच्चा ध्येय है जबकि चापलूसी झूठा । गुणग्राहकता हृदय से निकलती है, चापलूसी जीभ से । पहली निःस्वार्थ, समतावर्धिनी तथा आत्मकल्याण की कारणभूत होती है, जबकि दूसरी स्वार्थ सिद्धि और छल-कपट के लिए। एक प्रशंसनीय है, दूसरी निन्दनीय । साधक की मनोभूमि में जब प्रमोदभावना आती है, उसमें दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, छिद्रान्वेषण, स्वार्थ एवं छलकपट तथा पर- दोषदर्शी दृष्टि नहीं रहती, क्योंकि ये सब दुर्गुण समत्व को दूषित करने और विषमता पैदा करनेवाले हैं ।
उसे प्रमोदभावना नहीं कहा जा सकता, जहाँ बाहर से तो किसी गुणी व्यक्ति की समाज के भय या बड़े आदमी के लिहाज से अथवा बुरा न बनने के
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