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" जो परमातम सिद्ध मैं, सो ही या तन माहिं । । मोह मैल दृग लगि रह्यो तातैं सूझे नाहिं || मोहरूपी मल के कारण ही उसकी दृष्टि में विकार आता है और यह मोह ही समस्त कर्म - बंधन का मूल
" कर्मन की जर राग है, राग जरे जर जाय । प्रगट होत परमातमा, भैया
सुगम उपाय ।।
इस प्रकार मानव जीवन का ध्येय कर्म-बंधन से मुक्ति प्राप्त करना ही है। कर्म के बंधन ढीले होते ही जीव का ब्रह्मत्व प्रकट होने लगता है किन्तु राग-द्वेष से मुक्त होना कोई सरल कार्य नहीं, यह तो अत्यन्त कठिन साधना के पश्चात् ही सम्भव है, अतः जैन धर्म में कठिन पुरुषार्थ का ही महत्व है, वहाँ अवतारवाद को कोई मान्यता नहीं दी गई। अन्य धर्मों के समान वहाँ ईश्वर को सृष्टि का कर्ता अथवा नियामक नहीं माना जाता, न वह किसी को सुख देता है, न किसी को दुःख, जो स्वयं वीतराग है वह किसी को सुख, किसी को दुःख, क्योंकर देगा। ऐसी स्थिति में भक्त को भगवान की उपासना से क्या लाभ है? भैया भगवतीदास कहते हैं
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"ज्यों दीपक संयोग तैं, बत्ती करै उदोत | |
त्यों ध्यावत परमातमा, जिय परमातम होत । । 6
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जिस प्रकार प्रज्ज्वलित दीपक के सम्पर्क से बुझी हुई वर्तिका जल उठती है उसी प्रकार भगवान के अनुपम गुणों का ध्यान करने से भक्त के हृदय में वैसा ही बनने की लौ-लग जाती है, उसके परिणाम शुद्ध होने लगते हैं और कर्म - मल स्वयं ही छूटने लगते हैं। अतः भैया भगवतीदास के काव्य में अध्यात्ममूला भक्ति का उत्कर्ष है ।
भैया भगवतीदास ने काव्य का सृजन स्वान्तः सुखाय किया था, किन्तु पर्वतों के वक्षस्थल फोड़कर जो निर्झर स्वतः ही फूट पड़ते हैं, वे जन जन को तृप्त करते हैं। उन्होंने स्व- आत्मा को नाम दिया है 'चेतन' और उसकी प्रबोधना ही उनके काव्य का अभीष्ट है। विभिन्न रूपकों आदि के माध्यम से वे उसको संसार की क्षणभंगुरता एवं निस्सारता, शरीर की निकृष्टता, मनुष्य जन्म की दुर्लभता आदि से परिचित कराना तथा संसार से विरक्त करना चाहते हैं। अतः उनके काव्य में नव रसों में शान्त रस, और भक्ति के क्षेत्र में शान्ता भक्ति की धारा प्रवाहित हो रही है। जैन धर्म में ईश्वर में कर्तृत्व शक्ति का
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