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अध्याय
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मूल्यांकन एवं प्रदॆय
भैया भगवतीदास के काव्य का आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते समय स्पष्ट हो गया है कि वे एक आध्यात्मिक संत और भक्त कवि थे। उनके अंतर से ज्ञान, भक्ति और काव्य की समन्वित एवं पृथुल धारा प्रवाहित होती रही । वस्तुत: ज्ञान और भक्ति में पारस्परिक विरोध नहीं है। " जब व्यक्ति अर्न्तमुखी होता है तो वह अपनी प्रतिभा और प्रकृति के अनुरूप या तो श्रद्धा के माध्यम से आत्मा को पाता है या विवेक के । इस तरह अध्यात्म के ही दो रूप हो जाते हैं: एक भक्ति का और दूसरा ज्ञान का । श्रद्धा-भक्ति मानव के विकास मार्ग की पहली मंजिल है। ज्ञान दूसरी और विवेकपूर्ण आचरण तीसरी मंजिल है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण के समन्वय का ही नाम सर्व-अर्थ-सिद्धि है और यही मोक्ष है।" ज्ञान के भार से भक्त का हृदय और अधिक विनम्र हो जाता है तथा भक्ति ज्ञान को सरसता एवं माधुर्य प्रदान करती है। भैया भगवतीदास के काव्य में ज्ञान और भक्ति दोनों का ही सुन्दर समन्वय है। उन्होंने भगवान के चरणों में नमन करने के पश्चात् ही प्रत्येक रचना का आरम्भ किया है किन्तु उनकी भक्ति कोरी अन्धश्रद्धा नहीं थी, उसकी पृष्ठभूमि में पुष्ट जीवनदर्शन है। वे जानते हैं कि
"
"मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतम राम ।। मैं ही ज्ञाता ज्ञेय का चेतन मेरो नाम ।।
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प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है, तब दोनों में अन्तर क्या है वे स्वयं बताते है
" ईश्वर सो ही आत्मा, जाति एक है त ।। कर्म रहित ईश्वर भये, कर्मरहित जगजंत।।
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आत्मा और परमात्मा में कोई तात्विक भेद नहीं है, सांसारिक जीव कर्म - मल से युक्त होते हैं तथा कर्म-मल से विमुक्त होकर ये ही परमात्मा बन जाते हैं, किन्तु इस वास्तविकता को मनुष्य दृष्टिभ्रम के कारण देख भी नहीं
पाता
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