________________
इसी प्रकार शत अष्टोत्तरी में भी जीव रूपी राजा कुमति रूपी दासी के साथ बहुत समय से क्रीड़ा करता आ रहा है, रानी सुमति उसे भांति-भांति से सचेत करती है
"दासीन के संग खेल खेलत अनादि बीते, अजहुं लों व बुद्धि कौन चतुराई हैं ।।
X
X
X
इनही की संगत सौं संकट अनेक सहे,
जानि बूझ भूल ऐसी सुधि गई है || आवत परेखो हंस ! मोहि इन बातन को,
""
चेतना के नाथ को अचेतना क्यों भई है ||
मधु बिन्दुक चौपाई में भैया भगवतीदास ने जीव के संसार में अत्यधिक लिप्त होने का बहुत ही सुन्दर रूपक बांधा है। संसार रूपी वन में भटकते हुए जीव काल रूपी गज से भयभीत होकर भागता हुआ एक विशाल वटवृक्ष की शाखा पकड़कर लटक जाता है। नीचे एक कूप है जिसमें से सर्प और अजगर फन फैलाए हुए उसके गिरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उधर काल रूपी गज वृक्ष के तने को हिला रहा है। शाखा पर एक मधु का छत्ता लगा है, वृक्ष के हिलने से उसमें से मधु बिन्दु एक एक कर गिरते हैं, जिनके स्वाद में जीव इतना लिप्त हो जाता है कि अन्य विपत्तियों की उपेक्षा कर देता है। ऊपर से रात दिन रूपी दो चूहे उस शाखा को काट रहे हैं किन्तु जीव फिर भी मग्न है। एक विद्याधर उधर से जाते हुए, इस जीव का उद्धार करने के लिए ठहर जाता है, उसे उबार लेना चाहता है किन्तु जीव बार बार यह कहकर 'बस एक बूंद मधु और पा लूं' उसी में मग्न रहता है, विद्याधर चला जाता
" एक बूंद छत्ता सो खिरै। सो अबके मेरे मुँह गिरै ।। ताको अब्हीं चख सखंग। तब मैं चलूं तुमारे संग ।। जब वह बूंद परी मुख माहिं। तब दूजी पर मन ललचाहिं || अब यह जो आवेगी सही । तो चलहुं कुछ धोको नही ।। दूजी बूंद परी मुख जान। तब तीजी पर करी पिछान ।।
X
X
X
विद्याधर दै हाक पुकार | निकलै नहीं चल्यो तब हार ।। " अज्ञानी जीव की यही दशा है
(190)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org