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ताके भेद दोय कहे है अलोकाकाश,
दूजो लोकाकाश जिन ग्रंथनि में गायो है। जैसे कहूं घर होय तामें सब बसै लोय,
तातैं पंच द्रव्यहू को सदन बतायो है ।। याही में सवै रहै पै निज निज सत्ता गहै,
यातैं परें और सो अलोक ही कहायो है || जितने आकाशमाहिं रहै ये दरब पंच,
तितने आकाशको जु लोकाकाश कहिये । धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य कालद्रव्य पुद्गल द्रव्य,
जीव द्रव्य एई पांचों जहाँ लहिये ।। इन अधिक कछु और जो विराज रह्यो,
नाम सो अलोकाकाश ऐसो सरदहिये । देख्यो ज्ञानवंतन अनंत ज्ञान चक्षु करि,
गुणपरजाय सो सुभाव शुद्ध गहिये ।। "
इस प्रकार लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों ही अकृत्रिम, अनादि और अनन्त हैं। अलोकाकाश असीम है और लोकाकाश सीमित । अनन्त अलोकाकाश की तुलना में लोक ना के बराबर है। जैन दर्शन के अनुसार लोक सम्बंधी ये मान्यताएं ज्ञानी योगियों की सूक्ष्म दृष्टि का परिणाम है। लोक का आकार
लोक नाम से प्रसिद्ध आकाश का यह खंड मनुष्याकार है। पंडित कैलाश चन्द्र शास्त्री के अनुसार, “कटि के दोनों भागों पर दोनों हाथ रखकर और दोनों पैरों को फैलाकर खड़े हुए पुरूष के समान लोक का आकार है। नीचे के भाग में सात नरक हैं। नाभि देश में मनुष्य लोक है और ऊपर के भाग में स्वर्ग लोक है तथा मस्तक प्रदेश में मोक्षस्थान है । "
भैया भगवतीदास ने इस विषय पर एक पृथक और विशिष्ट कृति की रचना की है- “लोकाकाश क्षेत्र परिमाण कथन'। उसी कृति में उन्होंने भी लोक को पुरुषाकार बताया है
" पुरुषाकार कहयो सब लोक । ताके परें सु और अलोक ।। ' इस प्रकार लोक के तीन भाग हैं-- ऊर्ध्व लोक, मध्य लोक, अधोलोक । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार " अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के
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