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अपने-अपने सहज सब, उपजत विनसत वस्त। है अनादि को जगत यह, इहि परकार समस्त।।" - इसी प्रकार चेतन और पुद्गल के संयोग से यह प्राणी वर्ग की सृष्टि चल रही है
"चेतन अरु पुद्गल मिले, उपजे कई विकार। तासो विन समुझे कहैं, रच्यो किनहिं संसार।।13
इस प्रकार द्रव्यों के अपने-अपने स्वभावानुसार कार्यरत रहने से ही सम्पूर्ण सृष्टि सुचारू रूप से चल रही है, कोई इस सृष्टि का निर्माता नहीं, कोई प्रबंधक नहीं, कोई पालक नहीं, जीव भ्रम के वशीभूत होकर ही सृष्टि को किसी अन्य के द्वारा सृजित मानता है
"को काहू कर्ता नहीं करता भुगता आप। यहै जीव अज्ञान में करै पुण्य अरू पाप।।"
लोकरचना जैन दर्शन के अनुसार यह संसार षट द्रव्यों से निर्मित है। ये षट द्रव्य इस प्रकार हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें आकाश वह द्रव्य है जो सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देता है। कुंदकुंदाचार्य तथा आचार्य उमास्वाति ने आकाश का यही लक्षण बताया है। डॉ0 हीरालाल जैन के अनुसार उसका गुण है-जीवादि अन्य सब द्रव्यों को अवकाश प्रदान करना। यह द्रव्य जड़, अमूर्तिक, तथा सर्वव्यापी है। जैन दर्शन में आकाश के दो भेद माने गये हैं, एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश। "सर्वव्यापी अलोकाकाश के मध्य में लोकाकाश है और उसके चारों ओर सर्वव्यापी अलोकाकाश है। लोकाकाश में छहों द्रव्य पाये जाते हैं और अलोकाकाश में केवल आकाश द्रव्य ही पाया जाता है।"14 कोष के अनुसार आकाश के जितने भाग में जीव पुद्गल आदि षट द्रव्य देखे जायें सो लोक है। तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने ऐसा ही बताया है। इस प्रकार अनन्त आकाश के मध्य में जितने भाग में षट द्रव्यों की अवस्थिति है उतना भाग लोक अथवा लोकाकाश, शेष शुद्ध आकाश है। द्रव्य संग्रह का अनुवाद तथा भाव विस्तार करते हुए भैया भगवतीदास भी कहते हैं"जीव आदि पंच पर्दाथनि को सदा ही यह,
देत अवकाश तातै आकाश नाम पायो है।
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