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संस्कृत प्राकृत व्याकरणहू न पढ्यो कहूँ
तातें मोको दोष नाहि शोधियो निहार के। कहत भगौतीदास ब्रह्म को लयो विलास
तातें ब्रह्मरचना करी है विस्तार के।" इसी प्रकार मोही मानवों की सांसारिक दशा का चित्रण करते हुए वे कहते हैं
"कोऊ तो करें किलोल भामिनी सों रीझि-रीझि
वाही सों सनेह करै काम राग अंग में। कोऊ तो लहैं अनंद लक्ष कोटि-कोटि जोरि
लक्ष-लक्ष मान करें लच्छि की तरंग में। कोऊ महाशूरवीर कोटिक गुमान करें।
मो समान दूसरो न देखो कोऊ जंग में। कहें कहा 'भैया' कछु कहवे की बात नाहि
सब जग देखियतु राग रस रंग में।" फिर अपने इष्टदेव की भक्ति रस में भीगे भैया जी का एक पद्य भी देखिये
"काहे को देश दिशांतर धावत काहे रिझावत इंदनरिंद। काहे को देवि औ देव मनावत काहे को शीश नमावत चंद। काहे को सूरन सों कर जोरत काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद।
काहे को सोच करै दिन रैन तू काहे न सेवत पार्श्व जिनंद।" भैया जी ने विश्वव्यापी एकांती मतों पर भी ध्यान दिया था। लिखते हैं
"एक मतवारे कहें- अन्य मतवारे सब
मेरे मतवारे पर वारे मत सारे हैं। एक पंच तत्व वारे एक एक तत्व वारे
एक भ्रम मतवारे एक-एक न्यारे हैं। जैसे मतवारे बकें तैसे मतवारे बके
तासों मतवारें तकें बिना मत वारे हैं। शांत रखवारे कहे मन को निवारे रहें ।
तेई प्रान प्यारे लहें और सब वारे हैं।' संसार में मोहग्रस्त आत्मा को संबोधन करते हुए उनकी चेतावनी सुनिये
"रैन समे सुपनो जिय देखतु प्रात समै सब झूठ बताया। त्यों नदि नाव संयोग मिल्यो तुम चेतहु चित में चेतन राया।"
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