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________________ तव स्तवेन क्षयमङ्गभाजां, भजन्ति जन्माजितपातकानि । कियच्चिरं चण्डरुचेमरीचि स्तोमे तमांसि स्थितिमुद्वहन्ति ? ॥४॥ आपके स्तवन से प्राणियों के अनेक भवों के संचित पापों का क्षय होता है। सूर्य की किरणों के समक्ष अंधकार भला कब तक ठहर सकता शरण्य ! कारुण्यपरः परेषां, निहंसि मोहज्वरमाश्रितानाम् । मम त्वदाज्ञां वहतोऽपि मूर्ना, शान्ति न यात्येष कुतोऽपि हेतोः ? ॥५॥ हे शरण ग्रहण करने योग्य प्रभ ! आप दयालु अापके शरणागतों का मोह-ज्वर नष्ट करते हैं, परन्तु आपकी आज्ञा सिरोधार्य करने वाले मेरे इस मोह-ज्वर का, पता नहीं क्यों शमन नहीं होता ? (५) । भवाटवीलङ्घनसार्थवाहं, त्वामाश्रितो मुक्तिमहं यियासुः । कषायचोजिन ! लुप्यमानं, ___ रत्नत्रयं मे तदुपेक्षसे किम् ? ॥६॥ मुक्ति-अभिलाषा में भव-वन को पार करने में सार्थवाह तुल्य अापके प्राश्रय में हूँ; तो भी हे जिनेश्वर ! कषाय रूपी चोरों के द्वारा चराये जाते मेरे अमूल्य त्रिरत्नों की आप उपेक्षा क्यों करते हैं ? (६) लब्धोऽसि स त्वं मयका महात्मा, ___ भवाम्बधौ बम्भ्रमता कथञ्चित । प्राः पापपिण्डेन नतो न भवत्या, न पूजितो नाथ ! न तु स्तुतोऽसि ॥७॥ भव-सागर में भटकते हुए मुझे किसी प्रकार से अत्यन्त ही कठिनाई से आप महात्मा मिल पाये हैं, परन्तु मुझे खेद तो इस बात का है कि मुझ पाप-पिण्ड ने भक्ति पूर्वक हे नाथ ! न तो पापको नमन किया, न आपकी पूजा-अर्चना की और न स्तुति की। (७) 52 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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