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________________ कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्राचार्यचरणकजचञ्चरीक परमाहत्-श्रीकुमारपालम् भूपाल रचितम् * साधारणजिनस्तवनम् * __ नम्राखिलाखण्डलमौलिरत्न रश्मिच्छटापल्लवितांहि पीठ ! विध्वस्तविश्वव्यसनप्रबन्ध ! त्रिलोकबन्धोः जयताज्जिनेन्द्र ! ॥१॥ समस्त विनीत इन्द्रों के मुकुटों पर विद्यमान रत्नों की किरणों से कान्तिमय बने पाद-पीठ वाले और जिन्होंने जगत के दुःख समह को नष्ट किया है ऐसे तीन लोकों के बन्धु हे जिनेन्द्र ! आपकी जय हो । (१) मूढोऽस्म्यहं विज्ञपयामि यत्त्वा मुपेतरागं भगवन् ! कृतार्थम् । न हि प्रभूणामुचितस्वरूप निरूपणाय क्षमतेऽथिवर्गः ॥२॥ हे भगवन् ! मैं बुद्धिहीन, राग-रहित एवं कृतार्थ आपको विज्ञप्ति करता हूँ कि सचमुच स्वामी के उचित स्वरूप का निरूपण करने में सेवक समर्थ नहीं होता है । (२) मुक्ति गतोऽपीश ! विशुद्धचित्ते, गणाधिरोपेण ममासि साक्षात् । भानुदेवीयानपि दर्पणेऽशु सङ्गान किं द्योतयते गृहान्तः ? ॥३॥ हे स्वामी ! आप मोक्ष में हैं फिर भी मेरे निर्मल चित्त में आपके गुणों का आरोप करने से आप साक्षात् मेरे समक्ष हैं । अत्यन्त दूरस्थ सूर्य दर्पण में किरणों के संग से क्या घर के भीतर प्रकाश नहीं फैलाता ? (३) जिन भक्ति ] [ 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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