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कलकिालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित अयोगव्यवच्छेद-द्वात्रिंशिका
अगम्यमध्यात्मविदामवाच्यं ।
___वचस्विनामक्षवतां परोक्षम् ॥ श्रीवर्धमानाभिधमात्मरूप
महं स्तुतेर्गोचरमानयामि ।। १॥ अध्यात्मवेत्ताओं के लिए अगम्य, पंडितों के लिए अनिर्वचनीय और इन्द्रियों के ज्ञानियों के लिये परोक्ष परमात्म स्वरूप श्री वर्धमान स्वामी को मैं अपनी स्तुति का विषय बनाता हूं। (१)
स्तुतावशक्तिस्तव योगिनां न कि ।
गुरणानुसगस्तु ममापि निश्चलः ॥ इदं विनिश्चित्य तव स्तवं वदन् ।।
न बालिशोऽप्येष जनोऽपराध्यति ॥२॥ हे भगवान् ! आपकी स्तुति करने में क्या योगी पुरुष भी असमर्थ नहीं हैं ? (असमर्थ होते हए भी आपके गणों के प्रति अनराग से ही योगियों ने आपकी स्तुति को है उस प्रकार से) मेरे हृदय में भी आपके गुणों के प्रति दृढ़ अनुराग है, अत: मेरे समान मर्ख व्यक्ति भी आपकी स्तुति करने पर भी अपराध का भागीदार नहीं होता। (२)
क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था ।
अशिक्षितालापकला क्व चैषा ।। तथापि यथाधिपतेः पथिस्थः ।
स्खलद्गतिस्तस्य शिशुन शोच्यः ॥ ३ ॥ गम्भीर अर्थ युक्त श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि की स्तुतियाँ कहाँ और अभ्यास रहित मेरी यह वक्तृत्व-कला कहाँ ? तो भी बड़े-बड़े हाथियों के 32 ]
[ जिन भक्ति
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