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साथ शम अादि से दूर कर सकूगा यह ज्ञान होने पर) वह पलायन भी कर गया। (४८)
जइवि कयत्थो जगगुरु ! मज्झत्थो जइवि पत्थेमि । दाविज्जसु अप्पाणं, पुणो वि कइया वि अम्हाणं ॥४६॥ (यद्यपि कृतार्थो जगद्गुरो! मध्यस्था यद्यपि तथापि प्रार्थये । दर्शयेदात्मानं पुनरपि कदाचिदप्यस्माकम् ॥)
हे जगदगुरु ! यद्यपि आप कृतार्थ हैं तथा मध्यस्थ हैं तो भी मैं आपको प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी समय अथवा किसी देश में भी भ्रमण कर हमें अपना दर्शन दें। (४६)
इन झारण ग्गिपलोविनकम्मिधण ! बालबुद्धिरणा वि मए । भन्तीइ थुप्रो भवभयसमुदबोहित्थ ! बोहिफलो ॥५०॥ (इति ध्यानाग्निप्रदीपितकर्मेन्धन ! बालबुद्धिनाऽपि मया । भक्त्या स्तुतो भवभयसमुद्रयानपान ! बोधिफल: ॥)
ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा कर्म रूपी ईंधन को प्रज्वलित करने वाले और अत्यन्त दुस्तर भव-भय रूपी समुद्र को पार करने में यान के समान हे नाथ ! मैंने बाल-बुद्धि से सम्यक्त्व फल-दायक आपकी इस प्रकार से भक्तिपूर्वक स्तुति की। (५०)
जिन भक्ति ]
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