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________________ हे नाथ ! मुझे कषायों से पीड़ित देख कर भी और उनसे छुड़ाने में समर्थ होते हुए भी आप जैसे दयालु को मेरी उपेक्षा करना उचित. नहीं है । (३०) विलोकिते महाभाग !, त्वयि संसारपारगे । श्रासितुं क्षरणमप्येकं, संसारे नास्ति मे रतिः ॥ ३१ ॥ हे महाभाग ! संसार से मुक्त हुए आपको देखने के पश्चात् इस संसार में एक क्षण भर के लिए भी रहने की मेरी रुचि नहीं है । (३१) किं तु किं करवाणीह ? नाथ ! मामेष दारुणः । श्रान्तरो रिपुसंघातः, प्रतिबध्नाति सत्वरम् ||३२|| किन्तु हे नाथ ! मैं क्या करू ? इन अन्तरंग शत्रुओं का समूह मुझे कठोरता से सत्वर बांध लेता है । (३२) विधाय मयि कारुण्यं तदेनं विनिवारय । उद्दामलीलया नाथ ! येनागच्छामि तेऽन्तिके ॥ ३३ ॥ हे नाथ ! मुझ पर कृपा करके उस शत्रु- समूह को प्रचंड लीला से दूर करो, जिससे मैं आपके समीप पहुँच सकूं । (३३) 16 1 तवायत्तो भवो धीर !, भवोत्तारोऽपि ते वशः । एवं व्यवस्थिते किं वा, स्थीयते परमेश्वरः ? ||३४|| हे धीर ! यह संसार आपके आधार पर है और इस संसार से उद्धार होना भी आपके अधीन है। तो फिर हे परमेश्वर ! ग्राप शान्त क्यों बैठे हैं ? (३४) तद्दीयतां भवोत्तारो, मा विलम्बो विधीयताम् । नाथ ! निर्गतिकोल्लापं, न शृण्वन्ति भवादृशाः ।। ३५ ।। अतः अब मुझे संसार से पार करो, विलम्ब मत करो । हे नाथ ! जिसका अन्य कोई आधार नहीं है, ऐसे मेरे जैसे व्यक्ति के उद्गार क्या आप जैसे नहीं सुनेंगे। (३५) Jain Education International For Private & Personal Use Only [ जिन भक्ति www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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