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हे नाथ ! अनादिकालीन अभ्यास से मेरा चंचल मन विषय रूप अपवित्र कीचड़ में शकर की तरह चला जाता है। (२४)
न चाहं नाथ ! शक्नोमि, तन्निवारयितु चलम् ।
अतः प्रसोद तद्देवदेव ! वारय वारय ॥२५॥ हे नाथ ! मेरे इस चंचल मन को रोकने में मैं समर्थ नहीं हूँ। अतः हे देवाधिदेव ! मझ पर कृपा करके उसे विषय रूपी अशुचि में जाने से रोको, रोको। (२५)
कि ममापि विकल्पोऽस्ति, नाथ ! तावकशासने ।
येनैवं लपतोऽधीश ! नोत्तरं मम दीयते ? ॥२६॥ हे नाथ ! क्या मुझे आपकी आशा के सम्बन्ध में कोई सन्देह है ? जिसके परिणाम से मैं इतना कहता हूँ तो भी आप मुझे उत्तर नहीं दे रहे हैं ? (२६)
प्रारूढ़मीयती कोटी, तव किङ्करतां गतम् ।
मामप्येतेऽनुधावन्ति, किमद्यापि परीषहाः ? ॥२७।। हे नाथ ! मैं आपका सेवक-पद पा गया-इतने स्तर तक मैं आगे बढ़ा, तो भी अभी तक ये परीषह मेरा पीछा कर रहे हैं, उसका क्या कारण है ? (२७)
कि चामी प्रणताशेष- जनवीर्यविधायक ! ।
उपसर्गा ममाद्यापि, पृष्ठं मुञ्चन्ति नो खलाः ? ॥२८॥ समस्त जनों के वीर्य को उत्पन्न करने वाले हे नाथ ! ये दुष्ट उपसर्ग अभी तक मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ते ? (२८)
पश्यन्नपि जगत्सर्व, नाथ ! पुरतः संस्थितम् ।
कषायारातिवर्गेण, किं न पश्यसि पीडितम् ? ॥२६॥ हे नाथ ! अखिल विश्व को आप देख रहे हैं, फिर भी आपके सम्मुख खड़े हुए तथा कषाय रूपी शत्रुओं से पीड़ित इस सेवक को आप क्यों नहीं देखते ? (२६)
कषायाभिद्रुतं वीक्ष्य, मां हि कारुणिकस्य ते । विमोचने समर्थस्य, नोपेक्षा नाथ ! युज्यते ॥३०॥
जिन भक्ति ]
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