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________________ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । प्रलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥५॥ हे नाथ ! यद्यपि आप काम-भोगों से सदा विरक्त हैं तब भी जब आप रत्नत्रय रूपी योग को स्वीकार करते हैं, तब 'इन विषयों से छुट्टी' ऐसा विशाल वैराग्य प्राप में होता है । (५) सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । तदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नासि विरागवान् ? ॥६॥ जब आप सुख, दुःख, संसार और मोक्ष में मध्यस्थता (उदासीनता) धारण करते हैं; तब भी आपको वैराग्य होता ही है । अतः आप कहाँ और कब विरागी नहीं हैं ? आप तो सर्वत्र विरागी ही हैं। (६) दुःखगर्भे मोहगर्भ, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥७॥ हे भगवन् ! परतीथिक तो दु:ख - गभित एवं मोह-गर्भित वैराग्य में स्थित हैं परन्तु ज्ञान-गर्भित वैराग्य तो केवल आप में ही एकीभाव को प्राप्त है । (७) औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिघ्नाय, तायिने परमात्मने ॥८॥ उदासीनता में भी निरन्तर समस्त विश्व पर उपकार करने वाले वैराग्य में तत्पर, सबके रक्षक एवं परब्रह्म स्वरूप परमात्मा को हमारा नमस्कार हो । (८) 1. इस श्लोक में भगवान के दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् छद्मस्थ दशा के वैराग्य का वर्णन है। 2. इस श्लोक में भगवान की कैवल्य - दशा तथा सिद्धदशा के वैराग्य का वर्णन है। 92 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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