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. बारहवां प्रकाश
पटवभ्यासादरैः पूर्व, तथा वैराग्यमाहरः ।
यथेह जन्मन्याजन्म, तत्सात्मीभावमागमत् ॥१॥ हे नाथ ! पूर्वभवों में आदर पूर्वक के सुन्दर अभ्यास से आपने उस प्रकार का वैराग्य प्राप्त किया था कि जिससे आपको इस (चरम) भव में जन्म से ही सहज वैराग्य प्राप्त हुआ है । सारांश यह है कि आप जन्म से ही विरागी हैं । (१)
दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् ।
मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु ॥२॥ हे नाथ ! मोक्ष प्राप्ति के उपाय में प्रवीण पापको, सुख-हेतुओं में जिस प्रकार का वैराग्य होता है, उसी प्रकार का वैराग्य दुःख-हेतुओं में नहीं होता; क्योंकि दूःख-हेत वाला वैराग्य क्षणिक होने से भव-साधक है और सुख - हेतु वैराग्य निश्चल होने से मोक्ष - साधक है। (२)
विवेकशाणैर्वैराग्य, -शस्त्रं शातं त्वया तथा ।
यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षा -दकुण्ठितपराक्रम् ॥३॥ हे नाथ ! आपने विवेक रूपी शराण से वैराग्य रूपी शस्त्र को उस प्रकार से घिस कर तीक्ष्ण किया है कि जिससे मोक्ष के लिये भी उस वैराग्य रूपी शस्त्र का पराक्रम साक्षात् अकुण्ठित रहा। (३)
यदामरुन्नरेन्द्रश्री -स्त्वया नाथोपभुज्यते ।
यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥४॥ हे नाथ ! जब आप पूर्व भव में देव-ऋद्धि का और मनुष्य भव में राज्य ऋद्धि का उपभोग करते हैं तब भी जहां जहां आपकी रति(आसक्ति) प्रतीत होती है वह भी विरक्ति होती है; क्योंकि उस ऋद्धि का उपभोग करते हुए भी भोग-फल वाले कर्म का बिना भोगे हुए क्षय नहीं होगा यह सोचकर आप अनासक्ति से ही उपभोग करते हैं । (४)
1. इस श्लोक में भगवान के पूर्व भव तथा राज्य अवस्था को वैराग्य दशा
का वर्णन है।
जिन भक्ति ]
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