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________________ इच्छन्प्रधानं सत्त्वाद्य विरुद्ध गुम्फितं गुणैः । सांख्यः संख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१०॥ सतोगुण, रजोगुण आदि विरुद्ध गुणों से गुम्फित एक प्रधान (प्रकृति) का चाहक विद्वानों में मुख्य सांख्य भी अनेकान्तवाद का उत्थापन नहीं कर सकता । (१०) विमतिस्सम्मतिर्वापि, चार्वाकस्य न मग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु , यस्य मुह्यति शेमुषी ॥११॥ परलोक, आत्मा और मोक्ष प्रादि प्रमाण सिद्ध पदार्थों के विषय में भी जिसको मति उदासीन है ऐसे चार्वाक नास्तिक की विमति है अथवा सम्मति है यह देखने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। (११) तेनोत्पाद्व्ययस्थेम - सम्मिश्रं गोरसादिवत् । त्वदुपज्ञं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तुतस्तु सत् ॥१२॥ उस कारण से बुद्धिमान पुरुष समस्त सत् पदार्थों को आपके कथनानुसार गोरस आदि की तरह उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से मिश्रित मानते हैं । (१२) - -- नवां प्रकाश यत्राऽल्पेनाऽपि कालेन, त्वद्भक्तेः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु, कृतं कृतयुगादिभिः ॥१॥ जहां अल्पकाल में आपकी भक्ति का फल प्राप्त किया जा सकता है वह केवल एक कलियुग हो स्पृहणीय हो; कृतयुग आदि अन्य युगों को जाने दो। (१) सुषमातो दुःषमायां, कृपा फलवतो तव । मेरुतो मरुभूमौ हि, श्लाघ्या कल्पतरोः स्थितिः॥२॥ सुषम काल की अपेक्षा दुःषम कलिकाल में आपकी कृपा अधिक फलवती हैं । मेरु पर्वत की अपेक्षा मरुभूमि में कल्पवृक्ष की स्थिति अधिक प्रशंसनीय है। (२) 86 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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